ISSN 0976-8645

 

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वानस्पतिक ओषधियाँ: उद्भव एवं नामकरण

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सन्दीप कुमार सिंह (शोधच्छात्र)

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।

       वनस्पतियाँ आदिकाल से मानव एवं अन्य जीवधारियों के जीवन का आधार रही हैं। यद्यपि वनस्पति का अत्यन्त ही व्यापक अर्थ है तथा यह समस्त औद्भिद् द्रव्यों का सूचक शब्द है तथापि वनौषधियों के विभाजन क्रम में वनस्पति का विशेष अर्थ दिया गया है। अमरकोश में बिना फूल के ही फल लेने वाले वृक्ष को वनस्पति कहा गया है।1 ‘तरुशब्द की व्याख्या करते हुए निघण्टु आदर्श में टीकाकार क्षीर स्वामी ने कहा है-

‘‘तरन्ति आपदम् अनेन इति तरुः’’2

(जिसके द्वारा आपद् (विपत्ति) से तर जाया जाए वह तरु है)।

       प्रस्तुत लेख में वनस्पति शब्द का प्रयोग वनौषधियों (औद्भिद् द्रव्यों) के आशय से किया गया है।

       अथर्ववेद में अन्तरिक्ष को वनस्पतियों का पिता तथा पृथिवी को माता माना गया है। वनस्पतियों का मूल समुद्र में है।

‘‘यासां द्योष्पिता पृथिवीमाता समुद्रो मूलं वीरुधां वभूव।’’3

       इससे अन्तरिक्ष में फैलने वाली दिव्यौषधियों तथा पृथ्वी पर होने वाली समुद्री वनस्पतियों का सङ्केत प्राप्त होता है।

       अथर्ववेद में ही पृथिवी पर होने वाली वनस्पतियों को दो वर्गों में विभाजित किया गया है4-

       1.    पर्वतीय वनस्पतियाँ

       2.    समतल भूमि में होने वाली वनस्पतियाँ

       अथर्ववेद में ही एक स्थान पर इन्हें पर्वतीय और बाह्य कहा गया है तथा आंजन की उत्पत्ति त्रिक्कुट पर्वत पर कही गयी है।5 एक पर्वत पर विष की उत्पत्ति भी बताई गयी है।6 वातबहुल (जाङ्गल) प्रदेशों में होने वाली वनस्पतियों7 तथा जल में शैवाल से आवृत्त होने वाली वनस्पतियों का भी उल्लेख प्राप्त होता है।8 ऋग्वेद में ओषधियों के सैकड़ों उद्भव स्थान कहे गये हैं9; जिसमें भूमि का स्थान सर्वोत्तम है।10

       अग्निषोमीय सिद्धान्त के अनुसार जीवजगत् के संचालन के दो ही आधार हैं- जल और अग्नि।11 वनस्पतियों का विकास इन्हीं दोनों तत्वों से होता है। इसी के आधार पर वनस्पतियों को सौम्य और आग्नेय कहा गया है। इसी आधार पर ही वनस्पतियों का निर्धारण उष्ण वीर्य तथा शीत वीर्य के रूप में होता है।

         ओषधियों के सौम्य स्वरूप का संकेत ‘‘पयस्वतीरोषधयः’’ से ज्ञात होता है। ओषधियों में जल की स्थिति का शतपथ ब्राह्मण में अनेक बार उल्लेख किया गया है।12 इसी प्रकार वनस्पतियों में अग्नि के होने का भी उल्लेख प्राप्त होता है।13 उपनिषद् में भी वनस्पतियों का स्पष्ट वर्णन प्राप्त होता है।14

नामकरण -

       प्राचीन भारतीयकाल में ओषधियों का नामकरण उनके स्वरूप, गुण एवं कर्म आदि को ध्यान में रखकर किया जाता था। यह न केवल मानव नामकरण अपितु वनस्पतियों के नामकरण में भी यही प्रक्रिया अपनायी जाती थी । वनस्पतियों के नामकरण में अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव अधिक दृष्टिगोचर होता है। आर0 जी0 हर्षे का मानना है कि प्राचीन सभ्यताओं ने परवर्ती सभ्यताओं को प्रभावित किया है। भारतीय वनस्पतियों के अनेक नाम पूर्ण या आंशिक रूप से असीरियन नामों से मिलते जुलते है।15 भारतीय सभ्यताओं का अन्य सभ्यताओं से परस्पर सम्पर्क था तथा भारतीय सभ्यता से अन्य सभ्यताएँ प्रभावित थीं, ऐसा अधिकांश विद्वानों का मत है। अतः इसमें कोई सन्देह नहीं कि परस्पर व्यवहार के ओषधियों के नाम भी भारत से भिन्न क्षेत्रों में प्रचलित हो गये हो। उदुम्बर, अश्वत्थ आदि नाम वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक चले आ रहे है, किन्तु कुछ वनस्पतियों के नाम कालक्रम से परिवर्तित भी हो गये हैं। जैसे- गुग्गुलु, काष्मर्य आदि। द्रवन्ती16, ज्योतिष्मती17, त्रिवृत्18, विश्व भेषज19 आदि वैदिक वाङ्मय में अनेक अर्थो में उपलब्ध होते है, किन्तु आजकल ये वनस्पतियों के नाम में प्रयुक्त हो रहे है। इसी प्रकार आभर्वण शान्तिकल्प में अमृता, ब्राह्मी, गायत्री, ऐन्द्री, अपराजिता, अभया आदि का उल्लेख है, जिसके आधार पर आगे चलकर ओषधियों का नामकरण किया गया।

       ऋग्वेद में अतसशब्द काष्ठ के लिए प्रयुक्त है, जिससे अतसीशब्द बना। अग्निमन्थन करने वाले काष्ठ की संज्ञा अरणीथी जो बाद में ओषधि विशेष के नाम से प्रचलित हुई। करंजऔर अरलुऋग्वेद में राक्षसों के नाम हैं जो बाद में वनस्पतियों के नाम से प्रसिद्ध हुए। अथर्ववेद में जीवन्तीऔषध के तथा रास्नाशब्द रशना (मेखला) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ये दोनों भी बाद में वनस्पति के नाम के रूप में प्रचलित हुए। इटशब्द ऋग्वेद में एक ऋषि के नाम के रूप में आया है, जो बाद में वनस्पति विशेष का वाचक बना।20 अथर्व परिशिष्ट में महाबला शब्द देवता का बोधक है; जो बाद में ओषधि विशेष के अर्थ में रूढ हो गया।21 इसी प्रकार मुचकुन्दनामक एक महामुनि का नाम वनस्पतिविशेष के रूप में प्राप्त होता है।22

       न केवल इसी प्रकार अपितु पशु-पक्षियों के गुणकर्म साम्य अथवा प्रयोग के आधार पर भी बहुत सी वनस्पतियों का नामकरण किया गया। यथा- वाराही, नाकुली, सर्पगन्धा, अश्वगन्धा, गन्धर्वहस्त आदि। वैदिक वनस्पतियों के नामकरण के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है-

1.    स्वरूपवाचक- आण्डीक, तीक्ष्णशृङ्गी, विषाणका आदि।

2.    अवयववाचक- (क)  पर्ण- उत्तानपर्णा, चित्रपर्णी, पर्ण, पृश्निपर्णी आदि।

       (ख)   फल- फलवती

       (ग)    पुष्प- हिरण्यपुष्पी, शंखपुष्पी आदि।

       (घ)   कुन्द- कान्दाविष

3.    उद्भव वाचक- शीतिका, मण्डूरी, वर्षाहू।

4.    गुणवाचक-

       (क)   रूप- असिवनी, पीतदारु

       (ख)   रस- मधूक, मधुला, रसा

       (ग)    गन्ध- पूतिरज्जु, सर्पसुगन्धा, सुगन्धितेजन

5.    कर्मवाचक-

       सामान्य कर्म- अपामार्ग, उदोजस, सहमाना, जीवला, त्रायमाणा, रोहणी।

       विशिष्ट कर्म- केशदृहंणी, केशवर्धनी, क्लीवकरणी, मशकजम्भनी, संवननी।

       रोगपरक- ईर्ष्याभेषज, विलासभेषज, क्षेत्रिय नाशिनी, हरितभेषज।

6.    प्रशस्तिवाचक- पूतदु, भद्र

       उपर्युक्त विवेचन के आधार पर उपनिषदों में वनस्पतियों का उल्लेख निम्न प्रकार से किया गया है-

1.    स्वरूप वाचक- अणु, न्यग्रोध

2.    उद्भव वाचक- क्याम्बू

3.    गुणवाचक- अर्जुन, असिवनी

4.    कर्मवाचक- अमला, विकङ्कत

5.    प्रशस्तिवाचक- अर्क

अवयवों का विवेचन-

       वैदिक वाङ्मय में वनस्पतियों के काण्ड, शुङ्ग, पर्व, पत्र, पुष्प, मूल अवयवों का उल्लेख मिलता है। वैदिक महर्षियों ने अपुष्पा, सपुष्पा, अफला, फलिनी आदि भेद से ओषधियों का विभाजन अति सूक्ष्मता से किया है। पत्रों की रचना एवं आकृति पर उनका ध्यान विशेष रूप से गया है। फलिनी और मूलिनी ओषधियों के नाम का निर्धारण फल और मूल की प्रधानता के अनुसार ही हुआ है। ऋङ्गाकार फल को देखकर मेषशृङ्गी आदि अभिधानों का प्रयोग किया गया है। अथर्ववेद में ओषधियों का प्रचुर उल्लेख प्राप्त होता है।23 ‘‘पयस्वतीरोषधयः’’ से ओषधियों के क्षीर होने का सङ्केत प्राप्त होता है। अर्क के प्रसङ्ग में पर्ण, पुष्प, कोशी, धाना, अष्ठीला, मलादि विभिन्न अवयवों का वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता है।24 वृहदारण्यकोपनिषद् में पुरुषों के अवयवों एवं धातुओं के वर्णन के साथ वनस्पतियों एवं वृक्षों की आभ्यान्तरिक रचना की तुलना प्राप्त होती है25 -

       पुरूष                          वनस्पति

1.    लोम                           पर्ण

2.    त्वक्                           बहिरुत्पाटिका

3.    रक्त                            निर्यास

4.    मांस                           शक्कर

5.    स्नायु                           किनाट

6.    अस्थि                         आभ्यान्तर काष्ठ

7.    मज्जा                          मज्जा

       तना को काटने पर मूल से प्ररोह निकलता है, परन्तु मूल काट देने पर पुनरुद्भव नहीं होता। बीज से उत्पन्न वृक्षों को धानारुहकहा जाता था। बाह्य त्वक् से वनस्पतियों की रक्षा होती है।26 परवर्ती वाङ्मय में भी मूल, पत्र, पुष्प आदि अवयवों का उल्लेख प्राप्त होता है।27 पाणिनि ने अष्टाध्यायी में पर्ण, पुष्प, फल, मूल आदि अवयवों का उल्लेख किया है।28 वार्तिककार कात्यायन ने पुष्पमूलेषु बहुलम्’29 में पुष्प और मूल का निर्देश किया है। फलों का भी उल्लेख प्राप्त होता है।30 पातंजल महाभाष्य में मूल, स्कन्द, फल31 और पलाश, क्षीरवृक्ष, कण्टक32 का उल्लेख है।

       इस प्रकार हम देखते है कि वनस्पतियाँ अन्य जीवधारियों के जीवन का आधार हैं। वानस्पतिक ओषधियों का वर्ग विभाजन एवं नामकरण उनके उत्पत्ति स्थान, गुण, कर्म, स्वरूप के आधार पर किया गया है। वनस्पतियों की आन्तरिक संरचना मनुष्य की आन्तरिक संरचना से मिलने जुलने से इन दोनों का तुलनात्मक अध्ययन भी प्राचीन काल में दृष्टिगोचर होता है। वास्तव में आधुनिक परिप्रेक्ष्य में वनस्पतियों से बने उत्पादों का माँग बढ़ने के पीछे भी इनका बिना दुष्प्रभाव के अतिलाभदायक होना है; जिसको क्षीर स्वामी ने पूर्व में ही कह दिया था- तरन्ति आपदं अनेन इति तरुः (जिसके द्वारा आपद् दूर हो जाये वह तरु है)।

सन्दर्भग्रन्थसूची

1.  ऋग्वेदः

2.  अथर्ववेदसंहिता

3.  तैत्तिरीयोपनिषद्

4.  छान्दोग्योपनिषद्

5.  अमरकोशः

 

 

सन्दर्भ सूची-

1      ....तैरपुष्पाद्वनस्पतिः। (अमरकोश 2/4/6)

2ण्    नि0 0 प्रस्तावना, पृ0 3

3      शौनकीय अथर्ववेद संहिता 8/7/2

4      या रोहन्त्यागिरसीः पर्वतेषु समेषु च, ता नः पयस्वतीः शिवाः ओषधीः सन्तु शं हृदे।

                                                - शौनकीय अथर्ववेद संहिता, 8/7/17

5      देवांजन त्रैक्कुट परि मा पाहि विश्वतः। त्वा तरन्त्यविधयो बाह्याः पर्वतीया उत। (शौ0 अथर्ववेद, 19/44/6)

6      वध्रिः स पर्वतो गिरिर्यतो जातमिदं विषम्। (शौनकीय अथर्ववेद 4/6/8)

7      ऋग्वेद 10/34/1

8      अवकोल्वा उदकात्मान ओषधयः। व्यृषन्तु दुरितं तीक्ष्ण शृंग्यः। (शौ0 अथर्ववेद 8/7/9)

9      शतं वो अम्ब धामानि सहस्रमुत वो रुहः। (ऋग्वेद 10/97/2)

10    शौनकीय अथर्ववेद संहिता 6/21/1

11    शौनकीय अथर्ववेद संहिता 3/13/5, 6/54/2

 2     अपां रसाः ओषधिभिः सचन्ताम्। (शौनकीय अथर्ववेद 4/15/2)

       आपो हि एतासां रसः। (शतपथ ब्राह्मण 1/2/2/3, 3/6/1/7)

       सौम्या ओषधयः। (शतपथ ब्राह्मण 12/1/1/2)

 3     य आ विवेशोषधीर्यो वनस्पतिस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतम्। (शौनकीय अथर्ववेद 3/21/1/2, 5/24/2, 12/1/19)

 4     बृहदारण्यकोपनिषद् 3/2/13, एषां भूतानां पृथिवी रसः, पृथिव्या आपो रसः अपाभोषधयो रसः, ओषधीनां पुरुषो रसः। (छान्दोग्योपषिद् 1/1/2, तैत्तरीयोपनिषद् 2/1/1)

6      ऋग्वेद 5/41/8

 7     ऋग्वेद 1/146/6

 8     ऋग्वेद 1/140/2

 9     ऋग्वेद 10/60/12, 10/137/3

20    ऋग्वेद 10/171/1

21    अथर्व परिशिष्ट 71/17/7

22    खिलस्थान 2/1/7

23    अथर्ववेद 8/7/12

24    शतपथ ब्राह्मण 10/3/3/3

25    बृहदारण्यकोपनिषद् 3/9/1-6

26    शौनकीय अथर्ववेद 8/7/12, शतपथ ब्राह्मण - 2/3/1/10, 6/4/4/17, तैत्तिरीय ब्राह्मण - 3/8/17/4

27    गौतम धर्मसूत्र 7/12, बौधायन धर्मसूत्र 1/10/9

28    अष्टाध्यायी 4/1/64

29    पाणिनि अष्टाध्यायी, 4/3/166

30    पाणिनि अष्टाध्यायी, 2/4/12, 5/2/121

31    पातंजल महाभाष्य 1/2/45, 1/4/21

32    वही, 5/2/94