ISSN 0976-8645

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सप्तमाङ्के भवतां हार्दं स्वागतम्॥

Issue-7th , Vol-II, Date-15.07.2011, Year- 2, Place- Madhubani, Bihar, India

सप्तमाङ्कस्य मुख्यकार्यकर्त्तारः।

लोकार्पणकर्ता- प्रो० श्रुतिधारी सिंह, राँटी ड्यौढी, मधुबनी, बिहार

·         मुख्यसम्पादक- डा० सदानन्द झा

·         सम्पादन-

o    प्रो० रविशंकर मेनन, (’शिक्षा’ प्रभाग)

o    प्रो०पीयूषकान्त दीक्षित (दर्शनप्रभाग)

o    डा० अभयधारी सिंह (संस्कृति प्रभाग)

o    डा० त्रिलोक झा (संस्कृत प्रभाग)

o    बिपिन कुमार झा (सम्पादन प्रबन्धन)

·         सम्पादन सहायक-

o    डा० स्वरूप शर्मा

o    डा० प्रदीप झा

o    डा० सुमन दीक्षित

o    श्री देवानन्द शुक्ल (लिपि संशोधनप्रभाग)

o    सुश्री आकांक्षा शुक्ला

o    श्री गजेन्द्र ठाकुर (लिपि संशोधनप्रभाग)

o    श्री सुरेश्वर मेहेर

o    श्री कुन्दन कुमार मिश्र

o    श्री रामसेवक झा

  प्रकाशक- बिपिन कुमार झा

INDEX

·         प्रस्फुटम्

o   सम्पादकीयम्- विद्यावाचस्पति डा. सदानन्द झा

o   प्रकाशकीयम्- बिपिन कुमार झा

·         साहित्यानुरागः

o   वैदिक जल-चिकित्सा एवं वर्तमान सन्दर्भ -Dr. Umesh Kumar Singh, Dr. Sudha Singh

o   शब्दस्वरूपविमर्श: - डा. सदानन्द झा

o   Doubt in Nyaya Philosophy-Piyushkant Dixit

o   संस्कृतवाङ्मये पर्यावरणम्- Dr. K. Bharat Bhooshan

o   अर्थदृष्ट्या अमरकोष एवं हिन्दी वर्डनेटका अन्तर्सम्बन्ध एवं उपादेयता- Bipin Kumar Jha

o   प्राचीनकालिकी गुप्तचरव्यावस्था- डॉ. प्रदीप कुमार झा

o   पूर्वत्रासिद्धम्विमर्शः- रामसेवक झा

o   श्रीमद्भागवतस्य एकादशस्कन्धीय-तिङन्तपदानां शब्दशास्त्रीयमहत्त्वम्-प्रभाकरत्रिपाठी

o   कालिदासस्य अभिज्ञानशाकुन्तले प्रक्रमभङ्गदोष:-Prasanta Kumar Sethi

o   ज्योतिष शास्त्रे रोगविचारः-  अजय कुमार शर्मा

o   रोगनिदाने ज्योतिषशास्त्रस्य योगदानम्- पवन शर्मा

o   भारत-नेपाल सांस्कृतिक संबन्ध एवं मिथिला- Mukesh Kumar jha

o   ग्रहाणां मानवजीवनोपरि प्रभावः-रमेशः

o   मानसिकयोग्यतायाः स्वरूपं भेदाश्च-विजयकुमारः

o   Status of Women in Hindu Society-Chitresh Soni

o   ज्योतिषशास्त्रस्य प्रत्यक्षत्वम्-सुरेश शर्मा

o   Contribution of Locana in the Dhvani theory-Chitrsh Soni

 

·         शृङ्खला प्रभागः

o   वसुधैव   कुटुम्बकम् ,दीक्षित, डा. सुमन       

o   उन्नततमं तृणम्, Dipesh Katira

o   शिक्षानिर्धरणे ज्योतिषशास्त्रास्य योगदानम- शोध्च्छात्र  पवन शर्मा

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प्रस्फुटम्

सम्पादकीयम्

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विद्यावाचस्पति डा. सदानन्द झा

 

नीहार - हार - घनसार - सुधकराभां

कल्याणदां     कनकचम्पकदामभूषाम्।

उत्तुङ्ग- पीनकुचकुम्भ       मनोहराङ्गीं

वाणीं नमामि मनसा  वचसा विमुक्त्यै।।

अये सुरभारती समाराघन तत्परान्त:करणा विद्वज्जना: सहृदया: पाठका:।

विश्वस्य प्रथमान्तर्जालीय संस्कृतत्रौमासिक जाह्नवी पत्रिकाया: सप्तमाङ्कमिमं सहृदय विदुषां पुरत: समुपस्थापयन् अमन्दमानन्दमनुभवामि। सुरभारत्या जगति प्रचार-प्रसार हेतवे प्रारभ्यमाणाङ्कस्य लोकार्पण परम्परा प्रचलिताऽस्ति। अस्या जाह्नव्या प्रथमाङ्का प्रारभ्यमाणाङ्कं यावत् लोकार्पण-कार्यक्रम विवरणमत्र संक्षेपेण प्रस्तूयते। अस्या: प्रथमाङ्कस्य लोकार्पणं वेङ्कटेशनगर्य्यां तिरुपतिस्थ संस्कृतविश्वविद्यालयीय कुलपतिना प्रो. हरेकृष्ण सतपथिमहाभागेन सोत्साहमापादितम्, द्वितीयाङ्कस्य विश्वनाथपुर्यां हिन्दू विश्वविद्यालयीय कुलसचिवेन पी. के. उपाध्यायमहाशयेन सम्पादितम्, तृतीयाङ्कस्य दरभङ्गा मण्डलान्तर्गत मिथिलामहीमण्डनायमानोद्यान ग्रामे प्रो. रामजीठाकुर महाशयेन व्यध्यायि, चतुर्थाङ्कस्य कार्यक्रमोऽयं संयुक्त राज्यामेरिकास्थिते अटलाण्टानगरे डा. दीनबन्धुचन्दौरामहाभागेन शतशो विदुषामुपस्थितौ सोल्लासं सम्पादित:। अस्या पंचमाङ्कस्य लोकार्पणमह: दिल्लीस्थ श्रीलालबहादुरशास्त्रिाराष्ट्रिय मानित संस्कृत विश्वविद्यालय कुलसचिवेन डा. बी. के. महापात्रामहाभागेन समनुष्ठित:। अपरिहार्यकारणवशात् सर्वस्वदान रसिकानां प्रयागस्थोच्चन्यायालय कार्यवाहक मुख्यन्यायाधिपतिचराणां महामहिम पलोकवसुमहाशयानामनुपस्थितौ स्वामिवर्याणां निखिलात्मानन्द महाराज महाभागानां करकमलेन प्रयागस्थे स्वाश्रमे प्रो. वनमाली विश्वाल प्रभृतीनामुपस्थितौ सुरम्यवातावरणे अस्या: षष्ठाङ्कस्य लोकार्पणकार्यक्रम: सम्पन्नोऽभूत्। अत: स्वामिवराणां चरणकमले शिरसा वहत्ययं जाह्नवीपरिवार:।

प्रस्तुतस्य सप्तमाङ्कस्य लोकार्पण कार्यक्रम: मधुवनीस्थ रामकृष्ण महाविद्यालय परिसरे निर्धारितो वर्तते, यत्राऽस्माकं सौभाग्यवशात् खण्डवलाकुलकमलदिवाकरेण स्वनामधन्येन प्रथित विपश्चिता डा. श्रुतिधारीसिंह महानुभावेन विविधकार्यक्रम व्यस्तेनापि जाह्नवी-लोकार्पण कृते कृपानुमति: प्रदत्ताऽस्ति।

          प्रतिस्पर्धात्मके युगे साम्प्रतं नैका: संस्कृत पत्रिाका: विभिन्न प्रान्तेभ्य: अन्तर्जाल माध्यमेन संचालिता: सन्ति। यथाप्रख्यातेन संस्कृत विदुषा डा. बलदेवानन्दसागर महाभागेन संस्कृत- पत्राकारितेति ग्रन्थे सविवरणं समुदीरितमस्ति। किन्तु संस्कृत वाङ्मयविचार सारामृतमादाय धीरं प्रवहन्ती सहृदय मनांसि  सिञ्चन्ती संस्कृतमानकपत्रिाकाप्रतिष्ठां ; ISSN सम्प्राप्ता जाह्नवीयं न प्रभावितास्यादिति मन्ये। अस्या: प्रतिष्ठा हेतवे अस्माभिर्यथामतिसप्तमाङ्के प्रभूत: प्रयत्न: कृतोऽस्ति। अन्तर्जालीय पत्रिाकाया: कृते लिपि समस्या प्रमुखतमा आसीत् यत्नपूर्वकं तद्दोष समाधनं कृतमस्मामि: यत्रतत्र टंकण दोष: समापतित: तद्दोष परिहारापायोऽपि साम्प्रतं विहितोऽस्ति अस्या: कृतेपुरा वर्तमान: मानकलेखाभाव: विभिन्नप्रान्तीयै: आलेखान् प्रेषयद्भिः सहृदय विपश्चिद्भिरेव समाहित:। अस्या: पत्रिाकाया: प्राक्तनाङ्केषु आलेख सूची नासीत्, किन्तु प्रस्तुते सप्तमाङ्के साऽपि समावेशिताऽस्ति, यया अस्या: समेषामङ्कानामालेख सूची द्रष्टुं शक्यते। अस्या: जान्हव्या: सर्वत: प्रचाराय प्रसाराय च दूरदर्शनस्य, अमर उजाला, हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तानटाइम्स-सहारा-दैनिक जागरण, नादर्न इण्डिया प्रभृति दैनिक पत्राणामविस्मरणीयं योगदानमस्ति। अतस्तेषां माध्मण्यं स्फुटं व्याहराम:। अस्या: पत्रिाकाया उपयोगिता विषये स्वयं किमपि वक्तुं सर्वथाऽसमर्थ: संस्कृतवाङ्मयरसिका: विद्वांस: पाठका एवात्रा प्रमाणम्। आशास्महे यदनयान्तर्जालीय अन्तर्जाल जाह्नवी पत्रिकया समेषां संस्कृतभाषारसिकानां मनसि महानानन्द: समुदियादिति। अन्ते नानाप्रान्तेभ्य: येषां पण्डितानां महत्त्वाधायिनो लेखा: सम्प्राप्ता: यदीय कृपालवमासाद्य जान्हवीयं समुजृम्भमाणाऽस्ति तेभ्योभूयोभूय: साञ्जलिं धन्यवादान् वितराम:।

श्रुतिध्वनि  मनोहरा   मधुरसा शुभापावनी।

स्मृताऽप्यतनुतापहृत् समवगाह  सौख्यावहा।

निषेव्य   पदपङ्कजा विबुधवृन्द मान्याऽमला

समस्त   जगतीतले   प्रवहतादियं जाह्नवी।।

विद्वदञ्चरणचंचरीकः

      झोपाख्यः सदानन्दः        

लखनौरम्, बिहार


 

प्रकाशकीयम्

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बिपिन कुमार झा

HSS, IIT Mumbai

विद्या समुन्नतिपथं विशदीकरोति,

बुद्धिं विचारविषये प्रखरीकरोति।

कर्तव्यपालनपरां धियमादधाति

विद्या सखा परमबन्धुरयेह लोके॥

(वैदकीय सभाषितम्)

देशस्य सर्वाः भाषाः अस्माकं कृते अत्यन्तसमादरणीयाः वर्तन्ते। एतासां भाषाणां विकासे उत्कर्षे च संस्कृतभाषा सर्वदा पोषिकारुपेण सहाय्यं कृतम्। देशस्य रक्षणे एकसूत्रे बन्धने च महती भूमिका स्थापिता भाषेयम्। परञ्च अधुना सर्वकारैः संस्कृतभाषायाः प्रचाराय प्रसाराय च बहुविधाः कार्यक्रमाः न क्रियन्ते। वैदेशिकभाषायाः विकासाय तैः प्रसाराय च बहुविधः तैः प्रयासः क्रियते। सन्दर्भेऽस्मिन् कविनोक्तम्-

किमहो पण्डिताख्येन विप्रेणापि तिरस्कृता।

देवभाषा त्वया हन्त लाटिनी च पुरस्कृता।।

(4/14 शंकरजीवन-व्याख्यानम्)

स्वसंस्कृतेः रक्षणाय परम्परायाः विकासाय नैतिकोत्थानाय च मौनव्रतं परित्यज्य संस्कृतभाषायाः उत्कर्षाय निश्चप्रचम् आन्दोलनं करणीयम्। तेन न केवलं भाषायाः विकासः भविष्यति अपितु सुसुप्त-स्वाभिमानस्यापि जागरणं भविष्यति।

          भारते संस्कृतभाषायाः प्रचाराय प्रसाराय च बहूनां संस्थानां विश्वविद्यालयानां महाविद्यालयानां च पक्षतः मासिक-पाक्षिक-पत्र-पत्रिकादीनां प्रकाशनं स्वे-स्वे क्षेत्रे दरिदृश्यन्ते एव। परंच गवेषणाविषयिण्यः संस्कृतक्षेत्रानुवर्तिन्यः पत्रिका नितरामङ्गुलिगण्या एव सन्ति। अतो हेतो ’सारस्वत-निकेतनम्’ माध्यमेन अस्माभिः प्रप्रथमतः एतस्याः संस्कृत-ई-पत्रिाकायाः आरम्भः कृतः। अस्याः समुन्नतये स्वीयान् शोध-निबन्धान् सम्प्रेष्योपकुर्युरिति निवेदयामि। जाह्नव्या अङ्कोऽयं संस्कृतवाङ्मयस्य विविधशाखासम्बद्धैः शोधनिबन्धैः सुसज्जितो वर्तते। करुणावरुणालयस्य भगवतः जगन्नाथस्य प्रसादतः संस्कत-ई-पत्रिाका-जाह्नव्याः षड् अङ्कान् लोकाय समर्पितः अङ्कोऽयं सप्तमः भवतां पुरतः वर्तते।

          भाषात्रायस्य त्रिवेणीरूपेण विराजमाना जाह्नव्या अङ्कमिमं सुधीजनानां हस्ते समर्पयन्नहं प्रसन्नप्रकर्षमनुभवामि। अग्रेऽपि भवतां सहयोगं निरन्तरं वयं लप्स्यामह इति विश्वसिमि।

सप्तमे अङकेऽस्मिन् प्रत्यक्षापरोक्षरूपेण येभ्यः सहयोगं प्राप्तवन्तः तेभ्यः सहृदयं ध्न्यवादान् वितरामः।

बिपिन कुमार झा

 

जयतु संस्कृतम्                                                                                   जयतु भारतम्

                                                           

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साहित्यानुरागः

                                                                                                                             

वैदिक जल-चिकित्सा एवं वर्तमान सन्दर्भ

Dr. Umesh Kumar Singh*, Dr. Sudha Singh#

umeshvaidik@gmail.com, sudhavaidik@gmail.com

शोध-सार

प्राचीन काल से भारतवर्ष में जल को पवित्र स्थान दिया गया है तथा समस्त जलस्रोतों की स्तुति की जाती रही है। वर्तमान समय में भी हम देखते हैं कि हमारे समस्त मन्दिरों के पास प्रायः कोई कोई जलस्रोत अवश्य होता है। जितनी भी महत्त्वपूर्ण नदियाँ हैं उनके किनारे पर भी धार्मिक व्यक्तियों द्वारा प्रतिदिन पूजा अर्चना की जाती है। प्रस्तुत पत्र में इस भारतीय परम्परा के महत्त्व को आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से देखने का प्रयास किया गया है।

                वेद में प्राप्त चिकित्सापद्धतियों में जलचिकित्सा एक महत्वपूर्ण चिकित्सा पद्धति है। शरीर के पाँच महाभूतों में जल का अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान है, और शरीर में जल का कुल भाग ७० प्रतिशत होता है, अतः शारीरिक स्वास्थ्य में भी जल की अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हिन्दी में भी कहावत है कि - ‘‘सौ रोगों की एक दवा। शुद्ध जल और शुद्ध हवा।’’ जल के प्रदूषण से जहाँ अनेक रोग उत्पन्न होते हैं, वहीं जल के शुद्ध एवं गुणयुक्त होने पर रोगों का नाश भी होता है। जलों के द्वारा चिकित्सा का संकेत तो हमें ऋग्वेद से ही मिलता है, जब हमें बताया जाता है कि जलों में ही समस्त औषधियाँ विद्यमान है।[1]

                अथर्ववेद में आने के बाद हमें जलीय चिकित्सापद्धति कुछ अधिक विकसित रूप में मिलती है। अथर्ववेद में जलचिकित्सा के दर्शन हमें प्रथम काण्ड से ही होने लगते हैं। चतुर्थ सूक्त का चतुर्थ मन्त्र स्पष्ट घोषणा करता है, कि जलों में ही अमृत है और जलों में ही औषधियाँ है, जलों के गुणों से ही अश्व वेगवान् होते हैं और गायें पुष्ट होती है।[2] पञ्चम सूक्त में जहाँ जलों से औषधियाँ प्रदान करने की प्रार्थना की गई है, वहीं छठवें सूक्त में जलों का पञ्चधा विभाजन किया गया है।[3] आयुर्वेदिक ग्रन्थों में इसका द्विधा विभाजन करके पुनः दशधा विभाजन किया जाता है। तीसरे काण्ड के सप्तम सूक्त में भी जलों को क्षेत्रिय रोगों का नाशक कहा गया है।[4] छठवें काण्ड के तेइसवें एवं चौबीसवें सूक्त में भी हमें जलचिकित्सा का संकेत प्राप्त होता है।

                इस सन्दर्भ में Dr. Massaru Emoto द्वारा जापान में किए गए शोध का उल्लेख करना उचित है जिसमें उन्होंने पाया है कि जलों से प्रार्थना करने पर उनके द्वारा भी प्रत्युत्तर मिलता है। मनुष्य के प्रत्येक विचार, शब्द, चिन्तन, संगीत तथा कार्य का जलों के ऊपर प्रभाव पड़ता है और उनमें सूक्ष्म स्तर पर परिवर्तन जाता है।[5] इन परिवर्तनों के कारण जल का प्रदूषण भी दूर हो जाता है। आगे दिए गए चित्रों में जापान के फूजीवारा बाँध पर प्रार्थना के पहले और प्रार्थना के उपरान्त लिए गए चित्रों से यह प्रदर्शित होता है।

 

जलों के विभिन्न नमूने[6]

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Sanbu-ichi Yusui Spring water,

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Japan Shimanto River, referred to as the last clean stream in Japan

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Antarctic Ice

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Fountain in Lourdes, France

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Biwako Lake, the largest lake at the center of Japan and the water pool of the Kinki Region. Pollution is getting worse

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Yodo River, Japan, pours into the Bay of Osaka. The river passes through most of the major cities in Kasai.

 

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Untreated Distilled Water

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Fujiwara Dam, before offering a prayer

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Fujiwara Dam, after offering a prayer

 

जलों पर संगीत का प्रभाव

जलों पर संगीत का प्रभाव देखने के लिए वैज्ञानिक इमोतो ने संगीत बजाकर जल के स्फटिक बनाए और उनका भी चित्र लिया जिसका विवरण निम्नवत् है।

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Beethoven's Pastorale

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Tibet Sutra

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Kawachi Folk Dance

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Heavy Metal Music (
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जलों पर भावनाओं का प्रभाव

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Adolph Hitler

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Thank You

 

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Love and Appreciation

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Mother Teresa


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You Make Me Sick, I Will Kill You  

इन चित्रों से यह प्रदर्शित होता है कि वैदिक काल में जल को चेतन मानने का विचार कितना प्रासंगिक था। यद्यपि इन चित्रों पर कुछ लोगों का तर्क यह भी हो सकता है कि भिन्न- Frequency पर अलग- प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक है चाहे वह जड़ हो या चेतन। यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि क्यों अच्छे विचारों पर अच्छी प्रतिक्रिया और अशुभ विचारों पर विपरीत प्रतिक्रिया का कारण क्या हो सकता है? ऐसा तभी हो सकता है जबकि वस्तु में चैतन्य किसी किसी मात्रा में अवश्य विद्यमान हो। यहाँ पर हमें लाइबनित्ज के चिदणुवाद का स्मरण हो आता है जिसके अनुसार समस्त विश्व में प्रत्येक वस्तु में चैतन्य होता है। सजीव और निर्जीव  में चैतन्य का केवल मात्राभेद ही होता है जिसके कारण कोई वस्तु सजीव कही जाती है और कोई निर्जीव। जलों के इसी चैतन्य को ध्यान में रखते हुए सिन्धुद्वीप ऋषि ने अथर्ववेद के उन्नीसवें काण्ड में जल के सभी रूपों की स्तुति की है। साथ ही उन्हें रोगों को दूर करने वाला और औषधि प्रदान करने वाला भी कहा है।[7]

                वेद में हमें जलों के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। ऋग्वेद और अथर्ववेद में जलों के विशेषणों के रूप में ये नाम प्राप्त होते हैं-

. दिव्याः                . स्रवन्तिः             . स्वयंजा[8]            . हैमवती             . अत्स्याः              . सनिष्यदाः             

. वर्ष्याः                . धन्वन्याः            . अनूप्याः            १०. खनित्रिमाः                      ११. कुम्भेभिराभृताः               

१२. अनभ्रयः[9]

                इन द्वादश भेदों के अतिरिक्त वैदिकसाहित्य में जलतत्त्व के अन्य भी बहुत से वाचक शब्द प्राप्त होते हैं। डा. ज्ञानप्रकाश शास्त्री ने वैदिक साहित्य में जलतत्त्व के १०१ प्रकार को स्वीकार किया है।[10] किन्तु आयुर्वेद में जल के इतने अधिक भेदों को मानकर प्राकृतिक रूप से प्राप्त होने वाले भेदों को ही माना गया है तथा इनके गुणों का उल्लेख मिलता है। है। अष्टाङ्गसंग्रह में इन सभी जलों के गुणों को गिनाया गया है।[11]


 

 

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

अथर्ववेद

डा. ज्ञानप्रकाश शास्त्री, वैदिक साहित्य में जलतत्त्व और उसके प्रकार, भूमिका

ऋग्वेद

http://www.life-enthusiast.com/twilight/research_emoto.htm से उद्धृत


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शब्दस्वरूपविमर्श:

डा. सदानन्द झा

मुख्य सम्पादकः

शब्दोद्विधा- अनुकार्योऽनुकरणं च। उभावपि सार्थक-निरर्थकाभ्यां पुनर्द्वधेति चत्वार: शब्दभेदा:। एतादृश: शब्दो ध्वन्यात्मकोऽनित्यो वर्णात्मक: स्फोटात्मको वा नित्यइति शास्त्रेषु विविधा: पक्षा:। एतत् सर्वं समासेन प्रदर्शयितुं प्रयतेऽत्रानिबन्धे।

क.         शब्दभेदा: -

          अनुकार्यमनुकरणंचेति द्विधाशब्द:। अनुकार्यमपिद्विधा सार्थको निरर्थकश्च। तत्रा वृत्तिमान् व्यवहारोपयोगी सार्थक:। यथा घटपटादि:। निरर्थकश्च खगकलख वाद्यदिध्वनिरूप:। अनुकरणमपि सार्थकं निरर्थकं च। सार्थक-निरर्थकरूपानुकार्य शब्दवदानुकरणस्य भेदविवक्षायामनुकरणशब्द: सार्थक: तस्यानुकार्य रूपार्थ बोधकत्वात्। यथा-

तं  कर्णमूलमागत्य   पलितछद्मना  गिरा।

कैकयी शङ्कयेवाह रामे श्रीर्नस्यतामिति।।[12]

अत्रा रामेश्रीर्नस्यतामिति सार्थकस्य जरावाक्यस्य रामे श्री नस्यताम्¸ इति कालिदास वाक्यमनुकरणम्। अत: कालिदासस्यानुकरणं सार्थकस्यानुकरणम् एवं दात्यूहव्यूह केली कलित कुहकुहाराव कान्तावनान्ता[13] अत्रा कुहकुह इति शब्दो अनुकरणम् अनुकार्यं तु दात्वुहानां कुहकुह इति शब्दरूपम्। इहानुकरणं निरर्थकस्य, कुहकुहरूपानुकार्य शब्दस्य वृत्तिमत्वाभावेन निरर्थकत्वात् इत्थं द्विविधमत्राऽनुकरणं सार्थकनिरर्थरूपाऽनुकार्य शब्दबोधकत्वेन सार्थकम्। यद्यनुकार्यानुकरणयोरभेदविवक्षा तदाऽनुकरणं निरर्थकम्। एतत्पक्षेऽर्थवत्वा भावेनानुकरणान्नविभक्त्युत्पत्ति: प्रातिपदिकत्वाभावात्। भूसत्तायाम् इति निर्देशेनाऽनुकरणस्य निरर्थकत्वं ’भुवो वुगलुङलिटो’¸ इति निर्देशेन सार्थकत्वं च बोध्यते। व्यवहारे व्याकरणशास्त्रे च सार्थकस्यैव प्राधन्यं बाहुल्यं च। व्यवहारे प्रवृत्तिनिवृत्तिकारी वाक्यरूप: सार्थकएवशब्द: प्रयुज्यते। व्याकरणे तु स्फोटस्याष्टविधत्वेनाष्टधासार्थक: शब्द: यथा 1 वर्णस्फोट: - प्रकृतिप्रत्ययात्मक चरमवर्णाभिव्यक्त: 2 पदस्फोट: - सुबन्त तिङन्त घटकान्त्य वर्णाभिव्यक्त:। 3 वाक्यस्फोट: सुबन्त तिङन्त पदजन्यबोधपूर्वक वाक्यचरम वर्णाभिव्यक्त:। 4 अखण्डपदस्फोट: - प्रकृतिप्रत्यय जन्यबोधाभावे सति चरमवर्णाभिव्यक्त:। 5द अखण्डवाक्यस्फोट: पदजन्यबोधाभावे सति चरमवर्णाभिव्यक्त:। 6 वर्णजातिस्फोट: प्रकृतिप्रत्ययगतजातिव्यक्त:। 7 पदजातिस्फोट: सुबन्ततिङन्तगतजातिव्यक्त:। 8 वाक्यजातिस्फोट: पदसमूहगतजातिव्यक्त:। इत्थं शब्दभेद विषये नैके विवादा:। तत्रा वाक्यस्पफोटो वा प्रधानम्, तेनैवार्थसमाप्ते: इतरे तु वाक्यस्फोटज्ञानोपायभूता:

ख शब्दस्यानित्वयत्वम् -

शब्दो ध्वनिरूप एव, अतोऽसावनित्यएवेति नैयायिका वैशेषिकाश्च संगिरन्ते। संयोगविभागरूप कारणवत्त्वाद्, रूपादिवदिन्द्रिय ग्राह्यत्वात् तीव्रोमन्दो वा शब्द: इति कृतकोपचाराच्च शब्दोऽनित्य इति नैयायिकमतम्। उक्तं गौतमेन्

          आदिमत्वादैन्द्रियकत्वात् कृतक वदुपचाराच्य[14] वर्णरूप: शब्द: प्रथमेक्षण उत्पद्यते, द्वितीये तिष्ठति, तृतीये नश्यति च। द्वितीयएवक्षणेऽपरोवर्ण उत्पद्यते। तृतीये प्रथमस्य नाश: एवंतृतीयक्षणे तृतीयवर्णोपत्ति:। चतुर्थे च द्वितीयवर्णस्यनाश:। एवं शब्दजा: शब्दा: क्रमश: श्रोत्रविषया भवन्ति। ईदृक् शब्दसन्तानो यावद् वायुवेगमनुवर्तते वेगेनष्टे नश्यति च। कर्मणा साधर्म्यान्नित्यत्व साधक प्रमाणाभावात् नित्यवैधर्म्याच्च शब्दोऽनित्य इति वैशेषिका वदन्ति। यथाह काणाद:-

गुणस्य सतोऽवर्ग: कर्मभि: साधर्म्यंम्। [15]

सतोलिंगाभावात् [16]

नित्यवैधर्म्यात् [17]

सोयं गकार इति प्रत्यभिज्ञा गत्वजातिमूला, नतु गव्यक्तिमूला। एवं वर्णरूपणामपि शब्दानामुत्पत्तिरेव न तु व्यक्ति:। एषशब्दानित्यत्वपक्ष:।

ग. वर्णरूपएवशब्दोनित्यश्च -

          मीमांसकादीनामते परमाणुवन्निरवयवा ध्वनिभिरभि व्यक्ता वर्णा एव शब्दा:। वर्णरूप एव शब्द:। नहि गौ: इत्यत्र गकारौकार विसर्जनीय भिन्न: कश्चिदन्य: शब्द: गकारादीनामेकत्वान्न तत्र गत्वादिजाति सिद्धः। सोऽयं गकार इति प्रत्यभिज्ञा व्यक्तिविषयैव। ह्स्वत्व-तारत्व-मन्दत्वादयो वर्ण व्यंजकानां ध्वनीनामेवधर्मा:। तेषां वर्णेषु समारोपादकारोऽयं ह्स्व इत्यादिर्व्यवहार:। एवं वर्णरूप: शब्दोऽनित्य। तस्य नित्यत्वएवाऽध्ययनाध्यापनादि व्यवहार सिद्धि:। अध्यापनं नाम शब्ददानम्। दातृयाचकयोर्मध्ये तस्यानित्यतयाऽनवस्थाने कथमध्यापनं स्यात्। एवं वर्णातिरिक्तं न पदं नाऽपि वाक्यं च।

घद स्फोटएव शब्दो नित्यश्च -

          वैयाकरणानां मतेऽत्वकत्वादि धर्मवद्भिर्वर्णरूपैर्ध्वनिभिरभिव्यक्तं स्फोट शब्दाभिध्ेयं ब्रह्मैवशब्द:। एष स्फोटरूप: शब्दो व्यंजकध्वनिभेदेन भिन्नबिन्न वदाभाति वस्तुत एकरूप: सन्नपि। स्फोटभावे उभयत: स्फोटमात्रं निर्दिश्यतेरश्रुतेर्लश्रुतिर्भवति¸ इति ऋलृक् सूत्रस्थम्, एवं तर्हि स्फोट: शब्द: ध्वनि: शब्दगुण:।

ध्वनि: स्फोटश्च शब्दानां ध्वनिस्तु खलु लक्ष्यते।

अल्पो महाँश्च केषांचिद्  उभयं तत्स्वभावत:।।[18]

 इति तपरस्तत्कालस्य इति सूत्रस्थं च पातंजलमहाभाष्यं प्रमाणम्। किंच एकं पदम् एकं वाक्यम् इति सर्वानुभवोऽपि वर्णव्यक्तिरिक्त स्पफोटात्मक शब्दसत्वे प्रमाणम्।

          स्फोटएव वस्तुतोऽर्थ बोधक: शब्दइति स्वीकारे लाघवम् -

          शब्दानित्यत्व पक्षेऽनन्त वर्ण कल्पना द्वारा वर्ण ध्वंस वर्ण प्रागभाव कल्पनायां गौरवम्। पदवाक्ययोर्बोधकत्व सिद्धये क्षणिक वर्णानां समूहाभावेन वर्णसंस्कार-स्मृति स्वीकारे महद् गौरवम्। नित्यवर्णरूपशब्दस्वीकारे यद्यपि नानन्तवर्णतध्वंस प्रागभाव कल्पना, तथापि नित्यानां वर्णानां क्रमेणाभिव्यक्त्यऽभिव्यक्तेश्चानित्यतया यौगपद्याभावेन भावनारव्य संस्कार स्मृति द्वारैवार्थ बोधकत्वं वाच्यम्। संस्कारद्वारैवं वर्णानां साहित्य कल्पनया गौरवं भवत्येव। गौरित्यत्रा सकलवर्णाभिव्यक्तावर्थबोध्: स्फुटएव। एकेवर्णेनाभिव्यक्तेन नार्थबोध्:। किंच सर्वानुभूत पदवाक्यादीनां मिथ्यात्वकल्पनमयुक्तमेव।

          अत: स्फोटस्वीकार एव लाघवम्। एवं ध्वन्यभिव्यक्तं शब्दब्रह्मैव शब्द: स्फोटशब्दवाच्यं च अस्मात् स्फुटत्यर्थ इति स्फोट शब्दो योगरूढ़। तस्य योगशक्तिमत्वे चेष्टादावपि स्फोटशब्दप्रयोग: स्यात्। चेष्टादिभ्योऽप्यबोध्: सर्वसम्मत:। नास्ति स्फोटशब्द: केवलरूढ: प्रकृतिप्रत्ययार्थयो स्फुटतयावगमात्।

          इत्थमत्रा निबन्ध्े समासतश्शब्दभेदश्शब्दरूपंच निरूपितम्। तदयमत्रनिष्कर्ष:

अनुकार्यानिकरणे   द्वे    शब्दस्य   भिदे   स्मृते।

सार्थं      निरर्थकमित्याहुरनुकार्यं   विचक्षणा:।।1।।

तस्यानुकरणं      चापि    सार्थं     निरर्थमुच्यते।

भू सत्तायां भुवो वुग्लुङि लटोरवं  हि  दिश्यते।।2।।

सार्थ: शब्दोऽष्टधा प्रोक्तोशाब्दिकै: स्फोटनाम भाक्।

वर्णात्मकं   ध्वनिं   शब्दमनित्यं   भाषते  परे।।3।।

नित्यां   वर्णां  स्तथाशब्दां मीमांसादिमते स्थिता:।

शब्दव्यक्तिस्तथा       शब्दोत्पत्तिर्नैवोपयुज्यते।।4।।

गौरवादि    महादोषापातग्रस्त    मिदं    द्वयम्।।

ध्वनिव्यङ्ग्यं   स्फोटस्य   ब्रह्मशब्दस्ततो   मता:।।5।।

इत्यलं पल्लवितेन


 

सन्दर्भग्रन्थानां सूची

·        रघुवंश महाकाव्यम्

·        पतञ्जलिमहाभाष्यम्

·        सर्वदर्शनसंग्रहः

·        वैयाकरणभूषणसारः

·        लघुशब्देन्दुशेखरः

 

Doubt in Nyaya Philosophy

Piyushkant Dixit

The English word Doubt is made of five letters, and according to the Nyaya-Philosophy the cause of doubt is also five-fold. In the Nyaya Philosophy there are sixteen categories of elements, in which the third element is doubt[19]. After discussing the means of knowledge and the subject of knowledge, Gautama, the author of the Nyaya-Sutras mentions as doubt as the third element for discussion. All the elements in this World could be known by Pramanas or the means of knowledge. Thus, first of all, the means of knowledge or Pramana are discussed in Nyaya-Darshan. After knowing the means of knowledge, it becomes necessary that we should know the subject of knowledge. Thus in Nyaya-Philosophy, Prameya or the Subject of knowledge is next in priority at the time of composition of sixteen categories. This process of arranging different objects according to the Nyaya school is accepted as a base by reputed thinkers.[20]

When we prepare ourselves to arrange the elements through Nyaya or we start to examine the elements through the means of knowledge, then we necessarily need the prior presence of doubt. In this way, it is a well decided fact that to start any thinking process anywhere, the back ground of doubt is very important.

Though the merger of doubt and certain other categories of elements is possible in Prameya[21] or the subject of the means of knowledge, but Doubt and certain other subjects are specially mentioned as elements in Nyaya-Philosophy. This is one of the distinguishing aspects of Nyaya-Philosophy that sets it apart from other streams of Indian Philosophies which are chiefly concerned with discussing only spiritual elements like the supreme spirit.

It is true that doubt is the starting point in the examination of any element through different means of knowledge. At the same time, it is also very clear that if any knowledge is certain to begin with, then no one can try to examine it through the means of knowledge. In Nyaya-Darshan when the Maharshi Gautam defines Nirnaya or decision, the first word ‘Vimrishya’[22] is indicating the existence of doubt, the second word ‘Pakshapratipakshabhyam’ is devoted to supposition and apposition and the third word ‘Arthavadharanam’ denotes the decision of any element. From this definition we can see that how the doubt is accepted as the base situation in the effort to reach any decision in life.

The process of Nyaya is said to become active[23] only then when there is Samshaya or doubt. According to Vatsyayan, Nyaya is “Pramanaih Artha-Pareekshanam” i.e. Examination through means of knowledge. I think that Anveeksha also has a similar meaning to Nyaya. According to Vatsyayan “Pratyakshagamashritanumanam” i.e. inference (Anumanam), based on perception and oral testimony is Anveeksha[24], and that particular treatise or Shastra is Anveekshikee, Nyaya-vidya or Nyaya-Shastra where inference, based on perception and oral testimony is used to take proper decisions.

At the very starting of Nyaya-Darshan, Vatsyayana, explaining the definition of doubt clarifies that “Vimarsha”[25] is Samshaya or doubt. When we read the writings of Vatsyayan carefully in this context, then it becomes very clear that doubt or Samshaya is just the opposite of Nirnaya or certain decision or Tatva-Jnana. Further, clarifying doubt or Samshaya, Vatsyayana mentions that “there is something, may be this or that” this form of indefinite knowledge or Vimarsh is Samshaya.

When the Gautama defines the doubt then he put the most clear picture of it in the following Sutra—

‘Smananeka-dharmopapattervipratipatterupalbdhyanupalabdhyavyavasthatashcha Visheshapeksho Vimarshah Samshayah’[26]

In this Sutra, the last two words ‘Vimarshah Samshayah’ are meant as the definition of Samshaya or doubt by Maharshi Gautama. Here, the second word— Samshya the Lakshya or locus of the definition of doubt and the first word Vimarsha is the Lakshana or definition of Doubt or Samshya. The word ‘Vimarsha’ is made by two words - ‘Vi’ and ‘Mrishi’. Here ‘Vi’ is the prefix and ‘Mrishi is a root. The meaning of the prefix ‘Vi’ is ‘opposite’ and the meaning of the ‘Mrishi’ root is ‘knowledge’[27]. To get full meaning of ‘Vimarsha’ we understand the intent by adding here a sentence more - ‘at same locus’. In this way the full meaning of Vimarsha becomes “at same locus, the knowledge of elements which have an opposite sense to each other’. This type of knowledge is called ‘Doubt’ according to Nyaya-Shastra. Really this is a general definition of doubt.

Due to the existence of different causes of doubt, Maharshi Gautama has divided doubt into five. Among the five identified causes of doubt, the first cause is ‘Samana-dharmopapatti’ i.e., at same locus, knowledge of two opposite elements with equal qualities.[28] For example, during dusk when we see any old dry tree from a particular distance then we fall into doubt that ‘is it a dry tree or any human body?’. In this example the common locus is the object -dry tree. The two opposite elements that are cognized are dry tree and person. These two elements have similar qualities of tallness and form etc. (which gives rise to the confusion) which remains in the dried tree and person equally. Because the knowledge of these equal qualities at the same locus, a genuine doubt comes in existence. According to Muni Vatsyayana,  at a particular locus, where we become genuinely confused that ‘is it a dry-tree or any human form?’ one feels that ‘here I recognize equal qualities i.e. tallness and form but was not able to find any specific quality of dry tree or person to discriminate between the two’. This type of feeling is called ‘Visheshapeksha’[29]. This Visheshapeksha is also a  common cause of doubt.

According to Gautama-Sutra the second cause of doubt is "Aneka-dharmopapatti". Here, the meaning of 'Aneka-Dharma' is 'Asadharana-Dharma' i.e. unique quality of any element[30]. In other words, the unique quality of any particular element, separates that element from other similar elements. At the same time, such a quality also differentiates the element from dissimilar elements. In this way 'Aneka' meaning is similar and dissimilar elements.[31] Due to knowledge of these similar and dissimilar elements, on the suggestion of a unique quality or property, often people fall in doubt. For example in the case of Shabda or 'word', the unique property is 'creation due to separation' (when we utter the word through mouth then, before uttering the word many parts of mouth organ get  connected and separate from each other to produce the sounds that constitute a word. Thus, we can say that a word was created due to separation.) After knowing this unique property i.e. 'existence due to separation', we develop doubt that the 'word' is substance, quality or action; [32]because all these three elements (substance, quality and action) can be said to be created due to separation. The doubt is with regard to understanding whether ‘word’ (Shabda) should be classified as a substance (Dravya), quality (Guna) or action (Karma).

The third cause of doubt is 'Vipratipatti' i.e. that particular sentence which is the cause of doubt. According to Vatsyayana the meaning of Vipratipatti is the non-confirmation of a single knowledge. For example one Shastric tradition confirms the existence of the soul whereas another Shastric tradition tells that there is no soul in the world. If there is no specific forceful argument to support any one view, then ‘in this world soul exists or not’ is a doubt comes in existence.[33]

The fourth cause of doubt is ‘Upalabdhi-Avyavastha’. It means the irregularity of perception. When we see that in the pond water exists and the knowledge of water also occurs, but in desert sand during summer the water factually does not exist whereas the knowledge of water occurs. In such cases, the occurence of the knowledge of water is indicative of the factual (confirmed) presence of water in one case (pond etc.) whereas in other cases it is indicative of only a mirage not accompanied by the factual presence of water. The doubt that arises is with respect to the significance of the knowledge of water itself. It is not certain if knowledge of water indicates the factual presence of water or not[34].

The last and fifth cause of doubt is ‘Anuplabdhi-Avyavastha’. It means the irregularity of non perception. We see that in the root of any tree there is water but it is not known or actually perceived. There are also obvious impossible elements whose presence is not perceived (like the horn of a hare). In this position, it is not certain if the non perception of an element indicates the impossibility of an element or the mere inability to perceive an element.[35].

In Gautam-Sutra there is ‘Cha’ which indicates that the listing of doubts is not comprehensive. Due to this ‘Cha’ we can understand that another cause of doubt is “Vyapya-Samshaya’. Because of Vyapya-Samshaya we fall in doubt of Vyapaka or that element that overcovers.

Doubt comes to end (is resolved) when we are able to know any specific property in the subject of doubt. Keeping this situation in mind we can say that ‘Visheshadarshan-janyh Samshyah’. That is, due to the lack of specific knowledge doubt takes place in our life[36]. Once the specific confirmatory knowledge is obtained, the doubt ceases to exist. It is pertinent to understand this in the light of the exhortations in the Vedas, Upanishads and Shastras that Manan or re-appreciation of elements is necessary. Once an element has been realized through Shastric knowledge, there should be no scope for the presence of doubt that will facilitate Manan or re-appreciation.  In this context, the answer is very clear that in this type of condition we can put Aharya-Sanshaya[37] or artificial-doubt to make the basis for Manan or examination of Shastric elements. This reinforces the importance of the element of doubt to keep alive the Shastric tradition.

 

In western philosophy the idea that doubt cannot exist in doubt is credited to Descartes. However, even in ancient Nyaya texts, this sentiment is found. For example in the Nyaya Sutras it is mentioned that 'yathoktadhyavasayadeva tdvisheshapekshat Samshaye Nasamshayo Natyanta Samshayo Va'[38]. This clearly reflects the fact that Shastric traditions have been the torch bearers leading the intellect of mankind for the benefit of all.

 

References-

प्रमाणप्रमेयसंषयप्रयोजनदष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निश्रेयसाधिगमः न्या0सू01    

 अत्र च यद्यपि मोक्षजनकज्ञानविषयत्वेन प्रमेयमेवादौ निरूपितमर्हं तथापि प्रमाणस्य सकलपदार्थव्यवस्थापकत्वेन प्राधान्यात् प्रथममुद्देशः। ततोऽवसरतो बुभुत्सितप्रेयमेयस्य, ततश्च पदार्थव्यवस्थापनस्य न्यायाधीनतया न्याये निरूपणीयेऽभ्यर्हितयोर्न्यायपूर्वा¯योः संशयप्रयोजनयोः, तत्राप्यभ्यर्हिततया संशयस्य प्रथमम्। न्या0सू0, अ01 आ01 सू01 वृ0 पृ05

 

  तत्र संशयादीनां पृथक्वचनमनर्थकम़़्; संशयादयो यथासम्भवं प्रमाणेषु प्रमेयेषु चान्तर्भवन्तो न व्यतिरिच्यन्त इति। सत्यमेतत्, इमास्तु चतòो विद्याः पृथक्प्रस्थानाः प्राणभृतामनुग्रहायोपदिश्यन्ते, यासां चतुर्थीयमान्विीक्षिकी न्यायविद्या। तस्याः पृथक्प्रस्थानाः संशयादयः पदार्थाः। तेषां पृथग्वचनमन्तरेणाध्यात्मविद्यामात्रमियं स्यात्, यथोपनिषदः। तस्मात् संशयादिभिः पदार्थैः पृथक् प्रस्थाप्यते।

  ‘विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः’ इति। न्या0सू0, अ01 आ01 सू041 पृ044

  तत्र नानुपलब्धे न निर्णीतेऽर्थे न्यायः प्रवर्त्तते, न्या0सू0, भा0 अ01 आ01 सू01 पृ04

  क्ः पुनरयं न्यायः? प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः। प्रत्यक्षाऽऽगमाश्रितमनुमानं, साऽन्वीक्षा, तया प्रवर्त्तत इत्यान्वीक्षिकी न्यायविद्या न्यायशास्त्रम्। न्या0सू0, भा0 अ01 आ01 सू01 पृ04

  यथोक्तम्- ‘विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः’ इति। विमर्शः संशयः। पक्षप्रतिपक्षौ न्यायप्रवृत्तिः। अर्थावधारणं निर्णयः। स चायं किंस्विदिति वस्तुविमर्शमात्रमनवधारणं ज्ञानं संशयः प्रमेयेन्तर्भवन्नेवमर्थं पृथगुच्यते। न्या0सू0, भा0 अ01 आ01 सू01 पृ04

 न्या0सू0 अ01 आ01 सू023 पृ0 30

  क्रमप्राप्तं संशयं लक्षयति। संशय इति लक्ष्यनिर्देशः, विमर्श इत्यत्र ‘विशब्दो  विरोधार्थः, मृषिर्ज्ञानार्थः। एकस्मिन् धर्मिणीति पूरणीयम्। तेन ‘‘एकधर्मिणि विरोधेन भावाभावप्रकारकं ज्ञानं संशयः’’। न्या0सू0, अ01 आ01 सू023 वृ0 पृ030

  तत्र कारणमुखेन विशेषलक्षणान्याह- समानेति। उपपत्तिर्ज्ञानं, तथा च समानस्य विरोधिकोटिद्वयसाधारणधर्मस्य, ज्ञानादित्यर्थः। न्या0सू0, अ01 आ01 सू023 वृ0 पृ030

  समानमनयोर्धर्ममुपलभे, विशेषमन्यतरस्य नोपलभ इत्येषा बुद्धिरपेक्षा संशयस्य प्रवर्तिका वर्त्तते। तेन विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः। न्या0सू0, अ01 आ01 सू023 भा0 पृ030

  अनेकधर्मः असाधारणधर्मः, तज्ज्ञानादित्यर्थः। तथा च साधारणधर्मवद्धर्मिज्ञानजन्यः, असाधारणधर्मवद्धर्मिज्ञानजन्यश्चेत्यर्थः। न्या0सू0, अ01 आ01 सू023 वृ0 पृ030

  अनेकधर्मोपपत्तेरिति। समानजातीयमसमानजातीयøाानेकम्। न्या0सू0, अ01 आ01 सू023 भा0 पृ030

  अस्ति च शब्दे विभागजन्यत्वं विशेषः। तस्मिन् द्रव्यं गुणः कर्म वेति सन्देहः। न्या0सू0, अ01 आ01 सू023 भा0 पृ030

 

  व्याहतमेकार्थदर्शनं विप्रतिपत्तिः। व्याघातो विरोधोऽसहभाव इति। अस्त्यात्मेत्येकं दर्शनमाह। नास्त्यात्मेत्यपरम्। न च सöावासöावौ सहैकत्र सम्भवतः। न्या0सू0, अ01 आ01 सू023 भा0 पृ030

  सच्चोदकमुपलभ्यते तडागादिषु। मरीचिषु वाऽविद्यमानमुदकमिति। ततः क्वचिदुपलभ्यमाने तत्त्वव्यवस्थापकस्य प्रमाणस्यानुपलब्धेः किं सदुपलभ्यते, अथासत्? इति संशयो भवति। न्या0सू0, अ01 आ01 सू023 भा0 पृ031

  सच्च नोपलभ्यते मूलकीलकोदकादि। असच्चानुत्पन्नं विरुद्धं वा ततः क्वचिदनुपलभ्यमाने संशयः। किं सन्नोपलभ्यते उतासत्? इति संशयो भवति। न्या0सू0, अ01 आ01 सू023 भा0 पृ031

  चकारो व्याप्यसंशयस्य व्यापकसंशयहेतुत्वं समुच्चिनोतीति वदन्ति। विशेषापेक्षः कोटिस्मरणसापेक्षः। वस्तुतस्तु संशये धारावाहिकत्वं स्यादत आह- विशेषेति। ‘‘विशेषं विशेषदर्शनं अपेक्षते निवर्त्तकत्वेन’’ तथा च विशेषदर्शननिवर्त्त्यत्वकथनमुखेन विशेषादर्शनजन्यसंशय इत्युक्तम्। न्या0सू0, अ01 आ01 सू023 वृ0 पृ031

 

  न च निर्णीतेऽपि मननविधानान्न संशयस्य न्याया¯त्वम् इति वाच्यम्, आहार्यसंशयोपगमात्। न्या0सू0, अ01 आ01 सू01 वृ0 पृ0 5

 

  यथोक्ताध्यवसायादेव तद्विशेषापेक्षात् संशये नासंश

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संस्कृतवाङ्मये पर्यावरणम्

Dr. K. Bharath Booshan

            विशालेऽस्मिन् संसारे नानाधर्म तथा भाषाऽनुयायिनः सन्ति। अत्र विशिष्टरूपेण कालानुगुणं, सन्दर्भानुगुणं च ज्वाज्वल्यमानोऽयं विषयः अथवा प्रश्नः पर्यावरणस्य रक्षणं कथमिति? वसुधैव कुटुम्बकभावनां मनसि निधाय यदि आलोचयामः अन्टार्टिका प्रभृति सागरे महान् परिवर्तनम्् अनुभवामः। (सुनामीत्यादि प्राकृतिकपरिवर्तनेनाऽपि) मानुषशक्तिमतिरिच्य सुनामीति प्राकृतिकप्रकोपनेन अणु, परमाणु इत्यादि लोके सकारात्मक दृष्ट्या यत् संचयः कृतः तदपि विभिन्नपफलदायिनि भवति उदाहरणार्थं समीपे जापानदेशे परमाणुरक्षणस्थाने विस्फोटः सुनामीकारणात् अनुभूतम्। परिवर्तनं एकं सहजप्रवृत्तिः भवति। तदपि लोकहिताय यदि भवति चेत् विश्वबन्धुत्वं सम्भवति। आत्मसुखाय यदि क्रियते तर्हि विश्वनाशकारणमपि भवितुमर्हति। आत्मज्ञानमेव भारतस्य गौरवं, बलमपि। विज्ञानिनः शरीराद्बहिः अन्वेषणं कुर्वन्ति, परन्तु भारतीयसन्दर्भे ऋषयः शरीरान्ते तेषां प्रयाणमासीत्, तत् शाश्वतमपि आसीत्। विज्ञानिनः शरीराद्बहिः अन्वेषणं यद् कुर्वन्ति तस्य विज्ञानमिति कथयन्ति। तत्र परिवर्तनं दिने-दिने अनुभवामः। परन्तु शरीरान्ते यत् प्रमाणं भवति तत् आत्मावलोकनं आत्मज्ञानार्थं भवति तत्र शाश्वतफलप्राप्तिः भवति यदा पातंजलयोगशास्त्राादिकम्। परितः आवरणं पर्यावरणम् इति कथयामः एवं कथने कस्य परितः इति प्रश्नस्य समाधानं शरीर आत्मनः परितः इति वक्तुं शक्यते।

            अद्य वैज्ञानिके युगे विज्ञानस्य आधारेण सर्वं प्रकटीकर्तुं यतन्ते कुर्वन्ति च। परन्तु संस्कृतवाङ्मये पर्यावरणार्थं अस्माकं ऋषयः, कवयः प्रायोगिकरूपेण लोकसेवार्थं निदर्शनरूपेण प्रत्यक्षीकरणमपि कारितवन्तः।

            संस्कृतवाङ्मये पर्यावरणम् इति यदा वदामः तदा वेदाः एव अत्र मूलरूपेण, सर्वप्रथमसाहित्येन अवगन्तव्यम्। पर्यावरणविषये सर्वप्रथमं पर्यालोचनं वेदे एव उपलभ्यते अतः संस्कृत वाङ्मयस्य प्रभावः अवर्णनीयः। क्रमशः वेदादनन्तरम् इतिहास, पुराण, काव्य, नाटकाऽदि ग्रन्थानां द्वारा सम्यक् अनुभवितुं शक्यते। अथर्ववेदे औषधीनां नदीनां विषये बहुधा प्रशंसिताः सन्ति। उदाहरणार्थम् -

मधुमतीरोषधीर्द्यावि आपो मधुमत्रोऽभवत्वन्तरिक्षम्।

क्षेत्रस्य पतिमधुमानो अस्त्वरिष्यन्तो अन्वेना चरम।।

 

पनाय्यं तदश्विना कृतं वा वृषभो दिवो रजसः पृथिव्याः।

सहस्रं शंसा इत ये गविष्टौ सर्वं इत् उपयाता पिबध्यै।। इति।

            ओषधयः आकाशं जलं अन्तरिक्षः (पर्यावरणम् आदयः) अस्माकमुपरि कुपिताः न भवेयुः। अश्विनिकुमाराणां द्वारा पृथिवी, वातावरणं, आकाशमण्डली आदयः स्वस्थमनः, शरीरं, चिन्तनं च देयमिति। नद्याः अपि पर्यावरणे मुख्यमंगं वहति।

          येनपूतं बर्हिराज्यमथो हविर्येन पूतो यज्ञो वषट्कारो हुताहूतिः। तेन सहस्रधारेण पवमानः पुनातुमाम्।।

            अत्र कुश, आज्य, हवि, यज्ञ तथा वषट्कारः आदयः पर्यावरणस्य शुद्धं करोति। पर्यावरणशुद्धेन अस्माकं मानसिक, शारीरिक, सांवेगिक, सामूहिक, आध्यात्मिक, धार्मिक गुणाः अभिवर्धन्ते।

येनपूतौ वीहियवौ याभ्यां यज्ञो अधिनिर्मितः।

तेन  सहस्रधारेण   पवमान  पुनातु  माम्।।

येन पूता अश्वा गावो पूता अजावयः।

तेन सहस्रधारेण  पवमान पुनातुमाम्।।

            उपयुक्तमन्त्रद्वारा अवगम्यते यत्, अश्वः, गौः, अजः आदि जीवराशी द्वाराऽपि पुरुष संज्ञक प्राणः पवित्रमायाति। तेन वायुमण्डलरक्षणमपि भवति।

                             सं मा सिंचन्तु कृषयः सं मा सिंचन्वोषधीः।

                             सोमः समस्तान् सिंचतु प्रणया च धनेन च।

                             दीर्घमायुः वृणोतु मे।।

            उपयुक्त मन्त्रद्वारा नदी, समुद्रादि द्वारा पर्यावरणस्य मुख्यत्वमुक्त्वा तेन अस्माकं रक्षणं भवेदित्याशयः।

यथा द्यौश्च पृथिवी च न  बिभीतो न रिष्यतः।

एवा मे प्रणा मा बिभोः एवा मे प्राण मा रिषः।।

यथा वायुश्चान्तरिक्षं च  बिभीतो  न रिष्यतः।

एवा मे प्राण मा बिभेः एवा मे प्राण मा रिषः।।

यथा प्राणश्चापानश्च न  बिभीतो न रिष्यतः।

एवा मे प्राण मा बिभेः एवा मे प्राण मा रिषः।।

यथा मृत्युश्चामृतं च न  बिभीतो  न रिष्यतः।

एवा मे प्राण मा विभेः एवा मे प्राण मा रिषः।।

            उपयुक्तमन्त्राणां द्वारा अवगम्यते यत् पर्यावरणमपि स्वातन्   त्र्यरूपेण कार्यं करोतीति। यथा पृथ्वी, द्यौ, वायु, अन्तरिक्षं, सूर्यः, चन्द्रमा, दिनं, रात्रिः, धेनुः, वृषभः, वरुणः, ब्रह्म, क्षत्रं, इन्द्रः, इन्द्रियाः, वीरः, वायुः, प्राण, अपाण, मृत्यु, अमृतं, सत्यम्, असत्यं भूतं तथा भव्यं च न बिभर्ति।

            अथर्ववेदे द्वादशे कण्डे पृथिव्याः वर्णनं भवति। अत्र पृथिव्याः चिन्मयस्वरूपं वर्णितमस्ति। अस्माकं पूर्वजाः ऋषयः अधिदेवता, प्रत्यभिदेवता आदि द्वारा तोलिताः। अत्र पृथिव्याः स्वरूपं जले सहितं विद्यते। रसायन धातवः पृथिव्यां सम्मिश्रितरूपैव अत्र जलसम्बन्धेन रसायन फलस्वरूपं लभन्ते। तेन सम्बन्धेन वायुमण्डले परिवर्तनमपि संभवति। एवमौषधीनां साहाय्येन वायुमण्डले शद्धीकरणं संभवति। अतः लोकक्षेमं भवति।

            एवं वेदकालादेव अस्माकं पूर्वजाः पर्यावरणरक्षणे प्रयासः कृतवन्तः। उक्तं गीतायां च-

अन्नान्भवन्ति भूतानि पर्जन्यात् अन्नसम्भवः।

यज्ञान्भवति  पर्जन्यः  यज्ञः  कर्मसमुद्भवः।।

            अस्माकं ऋषयः लोकक्षेमार्थं पर्यावरणस्य रक्षणार्थमेव यज्ञादीनामनुष्ठानं कृतवन्तः इति ज्ञायते।

            वेदकालादनन्तरमितिहासकाले रामायण-महाभारतादिकाले अपि वाल्मीकि आदयः कवयः प्रकृतेः स्वरूपं, लाभं, महत्त्वं च वर्णिताः। रामायणे किष्किन्धाकाण्डे आंजनेयमुखात् श्रीलंकाक्षेत्रे सौन्दर्यवर्णनादिकं सुस्पष्टमेव।

            इतिहासकालादनन्तरकाले कलिदासः, भारविः, भासादि कवयः स्वग्रन्थे वर्णिताः। कालिदासस्य मेघदूते न केवलं विरहतापवर्णनम् अपिु हिमालयादारभ्य दक्षिणे विद्यमान रामागिर्याश्रमपर्यन्तं मेघ गमनमार्गमपि वर्णितः। मेघदूते प्रथमश्लोके कश्चित् -

 

कश्चितकान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारान्प्रमत्तः

शापेनास्तंगमितमहिमा    वर्षभोग्येण  भर्तुः।

यक्षश्चक्रेजनकतनया      स्नानपुण्योदकेषु

स्निग्धछायातरुषु  वसतिं   रामगिर्याश्रमेषु।।

            अत्र अन्तिमे स्निग्धछायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु इत्यत्र गिरि तथा आश्रम वर्णनमपि कृतम्। पुनः मेघाः धूमेन, वायुना, जलेन च आवृत्तमस्ति। अत्र प्रकृत्याः मिश्रणमेव इति सूक्ष्मरूपेण वर्णितः कालिदासः। यथा-

धूमज्योतिः सलिलमरुतां  सन्निपात  क्व मेघः

संदेशार्थाः क्व पदुकारणैः प्राणिभिः प्रापणीयाः।

इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन्तगुह्यकस्तं     ययाचे

कामार्ता हि प्रकृति  कृपणाश्चेतसा   चेतनेषु।। इति

            एवमेव वेंकटनाथः (वेदान्तदेशिकः) स्व सन्देश काव्ये हंससंदेशे प्रकृतिद्वारा पर्यावरणस्य प्रामुख्यतागहनेनौतः।

स्थानैर्दिव्यैरूपचितगुणां    चन्दनारण्यरभ्यां

मुक्तासूतिं मलयमरुतां  मातरं दाक्षिणाशाम्।

अस्मन्प्रीत्यै जनकतनया जीवितार्थं च गच्छन्

एकं रक्षः पदमिति सखे  दोष लेशं सहेथाः।। इति

            व्याकरणप्रणेता महर्षि पतंजलिना तस्य योगशास्त्रे अपि महत्त्वं प्रदर्शितम्। पर्यावरणस्य आधारेण योग कुण्डलिनिशक्तिः प्राप्यते। कुण्डलिनि शक्त्या त्रिकालगणनं संभवति इति निरूपितम्।

            अन्ते पुनः वैज्ञानिके युगे प्रचारे प्रसारे विद्यमानविषयः पर्यावरणस्य रक्षणम्। पर्यावरणरक्षणं सुकरं सरलं साध्यं च। यावत् वैयक्तिकरूपेण लोके जनाः अनुशासनेन परिपाल्यते चेत् अचिरादेव पर्यावरणस्य रक्षणं भवति। अतिवृष्टि द्वारा अथवा अनावृष्टिद्वारा वा लोकहितं नैव भवति। इदानीं प्रपंचे पर्यावरणस्य रक्षणार्थं प्रयासः कुर्वन्ति परन्तु अस्माकं पूर्वजाः पूर्वमेव वसुधैव कुटुम्बकमिति विचारेण आचरिताः तस्य पुनः रक्षणीयावकाशः आगतः इति विषयमेव सूचनीयाः।

अथर्ववेदः 9/143/8-9

श्रीमद्भगवद्गीता

मेघदूतम्

तत्रैव

हंससन्देशम्

सन्दर्भग्रन्थसूची

१.     अथर्ववेदः

२.     श्रीमद्भगवद्गीता

३.     मेघदूतम्

 

 

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अर्थदृष्ट्या ’अमरकोष एवं हिन्दी वर्डनेट’ का अन्तर्सम्बन्ध एवं उपादेयता

Bipin Kumar Jha

Cell for Indian Science and Technology

HSS, IIT, Mumbai

Kumarvipin.jha@gmail.com

 

शोधसार-

जनसामान्य के दैनिक क्रियाकलाप हेतु शब्दप्रयोग की महत्ता सर्वविदित है। अमरकृति अमरकोशकार अमरसिंह ने इसी महत्ता को ध्यान में रखते हुये नामलिङ्गानुशासन प्रथित अमरकोष की रचना अत्यन्त ही वैज्ञानिक रीति से की। कालान्तर में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के प्रयोग ने इस ग्रन्थ को और भी उपादेय बनाया। यह शोधपत्र एक जिज्ञासा के प्रशमन हेतु प्रस्तुत की जा रही है कि क्या संस्कृत[39] के शब्द अन्य भारतीय भाषाओं में अपने मूल संस्कृत अर्थ के साथ ही अस्तित्व में हैं? क्या उनके POS[40] अपरिवर्तित रहे हैं? इन जिज्ञासाओं के प्रशमन का यथासम्भव प्रयास किया गया है। साथ ही यान्त्रिक अनुवाद हेतु इसकी उअपादेयता को इंगित किया गया है।

शैले शैले न माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे गजे।

साधवो नहि सर्वत्र, चन्दनं न वने वने।।

उक्त पङ्क्ति इस अक्षरशः सत्य है। यदि कोशग्रन्थ ढूंढने लगें तो असंख्य ग्रन्थ हमारे सामने होते है। किन्तु कुछ ही ऐसे कोशग्रन्थ हैं जो सन्दर्भित भाषा या विधा का प्रतिनिधित्व कर पाते हैं। इसी श्रेणी के ग्रन्थ के रूप में हमारे समक्ष विद्यमान है- नामलिङ्गानुशासनम् नाम अमरकोश। यह कोश ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी मे आचार्य अमर सिंह द्वारा लिखि गयी थी। इस ग्रन्थ का विभाजन इस प्रकार किया गया है-

1.    प्रथमकाण्ड

o   स्वर्ग

o   व्योम

o   दिक्

o   काल

o   धी

o   शब्दादि

o   नाट्य

o   पातालभोगी

o   नरक

o   वारि

2.    द्वितीयकाण्ड

o   भूमि

o   पुर

o   शैल

o   बनौषधि

o   सिंहादि

o   मनुष्य

o   ब्रह्म

o   क्षत्रिय

o   वैश्य

o   शूद्र

3.    तृतीयकाण्ड

o   विशेष्यनिघ्न

o   संकीर्ण

o   नानार्थ

o   अव्यय

o   लिङ्गादिसंग्रह

 यह प्रयोग ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी मे आचार्य अमर सिंह रचित नामलिङ्गानुशासन[41] अर्थात् अमरकोष, संस्कृत लाइब्रेरी (आनलाइन), हैदरावाद विश्वविद्यालय की साइट, शिवजा एस नायर के लेख, हिन्दी वर्डनेट (IIT Bombay) आदि की सहायता से की जा रही है।

यहाँ हम अमरकोष के जिन संज्ञाओं को ले रहे है वे हैं-

अग्निः, अङ्कः, अङ्कुशः, अङ्गम्, अङ्गारः, अजः, अजगरः, अज्ञानम्, अजितः, अञ्जलिः, अणिः, अत्तिका, अतिरिक्तः, अथ, अधिकारः, अनामयम्, अपसव्यं, अब्दः, अमरावती, अलका, अवसरः, अहोरात्रः, आकारः, आडम्बरः, आपणः, आर्यावर्तः, आराधनम्, आस्था, इडा, इष्टम्, उक्तम्, उत्पत्तिः, उपत्यका, एकाग्रः, ऋतुः, कथा, कुम्भः, क्षेत्रज्ञः, केसरः, गणः, गर्भाशयः, चिक्कसम्, जगती, ज्ञानम्, जननी, झल्लरी, तक्रम्, तृणम्, तन्त्रः, गः, दूतः, दूरम्, दिवा, धनी, धूलिः, नक्रः, नेत्रम्, नदी, निष्ठा, पक्षः, पूतः, पद्मम्, पद्माकरः, पद्यरागः, पुनः, पुनर्नवा, पयोधरः, प्रकृतिः, प्रकारः, प्रकाशः, प्रजा, प्रेतः, परतन्त्रः, पर्यङ्कः, पर्यटनम्, पुरोहितः, पिपासा, फाल्गुनः, बुद्धिः, बिम्बः, ब्रह्मचारी, भुजः, भारतम्, मनुष्यः, मुसलः, मा, मासः, मांसम्, मित्रम्, मिथुनम्, यत्नः, यात्रा, रोमाञ्चः, वत्सः, व्यञ्जनम्, वंशः, विनायकः, विमर्शः, वीर्यम्, सिन्धुः

इन सज्ञाओं की तुलना जब हम भारतीय भाषाओं में प्राप्त शब्दों से करते है तो अधोलिखित परिणाम प्राप्त होते हैं (उदाहरण हिन्दी से तुलनात्मक अध्ययन का प्रतिफल)-

1.    पर्यायसमूह बढ गये हैं।

अग्निः         NA

अङ्कः        3.3.4

अजः          3.3.36

अजगरः      NA

अज्ञानम्      NA

अजितः       3.3.68  कुल 84

2.    अर्थ संख्या में बृद्धि हुई है।

अग्निः         NA

अङ्कः        3.3.4

अजः          3.3.36

अजगरः      NA

अज्ञानम्      NA

अजितः       3.3.68

अञ्जलिः      2.6.86

अत्तिका      NA total=51

 

3.    कतिपय भाषाओं में शब्दलुप्त हो गया है।

अङ्कुशः     2.8.42

अङ्गम्       2.6.71

अङ्गारः     2.9.30

अणिः         2.8.57 Total =13

4.    संज्ञा से संज्ञा + विशेषण में परिवर्तन ।

अजः          3.3.36

अजगरः      NA  Total =9

5.    संज्ञा से विशेषण+क्रियाविशेषण में परिवर्तन।

अतिरिक्तः

3.1.74

दूरम्

3.1.67

 

6.    संज्ञा से क्रियाविशेषण में परिवर्तन।

अथ

3.3.255

अहोरात्रः

NA

 

7.    संज्ञा से विशेषण में परिवर्तन।

अपसव्यं      3.1.83

एकाग्रः       3.1.79

8.     आण्टोलाजिकल आर्डर में परिवर्तन।

शब्दों के आण्टोलाजिकल आर्डर में परिवर्तन प्रायः अर्थपरिवर्तन के साथ ही देखने को मिलता है। यहाँ पर ’इष्ट’ शब्द को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है-

ब्रह्म > इष्टम् > यज्ञादि कर्मNapumsaka-linga>संज्ञा

इष्ट[42] >संज्ञा
1. ऐसे कर्म जो धर्म से संबंधित हों

§  सामाजिक कार्य (Social) ( SCL उदाहरण:- विवाह,यज्ञ,तर्पण इत्यादि )

§  कार्य (Action) ( ACT उदाहरण:- दौड़,पढ़ाई,चिंतन इत्यादि )

§  अमूर्त (Abstract) ( ABS उदाहरण:- मन,हवा,गुण इत्यादि )

§  निर्जीव (Inanimate) ( INANI उदाहरण:- पुस्तक,घर,धूप इत्यादि )

§  संज्ञा (Noun) ( N उदाहरण :- गाय,दूध,मिठाई इत्यादि )

1.     वह जो सब बातों में सहायक और शुभचिन्तक हो   

§  संज्ञा (Noun) ( N उदाहरण :- गाय,दूध,मिठाई इत्यादि )

2.     एक पौधा जिसके बीजों से तेल निकाला जाता है  

§  वनस्पति (Flora) ( FLORA उदाहरण:- शैवाल,लता,वृक्ष इत्यादि )

§  सजीव (Animate) ( ANIMT उदाहरण:- मानव,जानवर,वृक्ष इत्यादि )

§  संज्ञा (Noun) ( N उदाहरण :- गाय,दूध,मिठाई इत्यादि )

3.      वह विचार जिसे पूरा करने के लिए कोई काम किया जाए  

§  अमूर्त (Abstract) ( ABS उदाहरण:- मन,हवा,गुण इत्यादि )

§  निर्जीव (Inanimate) ( INANI उदाहरण:- पुस्तक,घर,धूप इत्यादि )

§  संज्ञा (Noun) ( N उदाहरण :- गाय,दूध,मिठाई इत्यादि )

4.      वह देवता जिसकी पूजा किसी कुल में परंपरा से होती आई हो 

§  पौराणिक जीव (Mythological Character) ( MYTHCHR उदाहरण:- बकासुर,पांडु,द्रौपदी इत्यादि )

§  जन्तु (Fauna) ( FAUNA उदाहरण:- गाय,मानव,सर्प इत्यादि )

§  सजीव (Animate) ( ANIMT उदाहरण:- मानव,जानवर,वृक्ष इत्यादि )

§  संज्ञा (Noun) ( N उदाहरण :- गाय,दूध,मिठाई इत्यादि )

5.      ढला हुआ मिट्टी का विशेषकर चौकोर लम्बा टुकड़ा जिसे जोड़कर दीवार बनाई जाती है

§  मानवकृति (Artifact) ( ARTFCT उदाहरण:- पुस्तक,कुर्सी,नाव इत्यादि )

§  वस्तु (Object) ( OBJCT उदाहरण:- पुस्तक,छाता,पत्थर इत्यादि )

§  निर्जीव (Inanimate) ( INANI उदाहरण:- पुस्तक,घर,धूप इत्यादि )

§  संज्ञा (Noun) ( N उदाहरण :- गाय,दूध,मिठाई इत्यादि )

विशेषण

1.      जिसकी इच्छा की गई हो

§  संबंधसूचक (Relational) ( REL उदाहरण :- चचेरा, मौसेरा, बनारसी इत्यादि )

§  विशेषण (Adjective) ( ADJ उदाहरण:- सुंदर,लिखित,अमर इत्यादि )

2.      बहुत निकट का या बहुत करीबी  

§  अवस्थासूचक (Stative) ( STE उदाहरण :- सूखा, तर, जवान इत्यादि )

§  विवरणात्मक (Descriptive) ( DES उदाहरण :- लाल, पाँच, सुंदर इत्यादि )

§  विशेषण (Adjective) ( ADJ उदाहरण:- सुंदर,लिखित,अमर इत्यादि )

9.    POS में कोई परिवर्तन नहीं।

Noun to Noun            Reference

अग्निः         NA

अङ्कः        3.3.4

अञ्जलिः      2.6.86

अत्तिका      NA

अधिकारः    2.8.31

अब्दः         2.4.20कुल 66

उक्त विवरण के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि संस्कृत के शब्द भारतीय भाषाओं में अर्थदृष्ट्या तो परिवर्तित हुए ही साथ ही प्रायोगिक रूप से भी परिवर्तित हुए हैं। ऐसे में यदि हम संगणकीय अनुवाद की बात करें तो और भी जटिल प्रतीत होता है। एक शब्द दूसरे भाषा में विविध आशयों के साथ अस्तित्व में दिखतें हैं। संगणक हेतु यह एक समस्या है कि वह विविध शब्दों एवं अर्थों का सन्तुलन कर अनुवाद कार्य कैसे करे। इस दृष्टि से यह शोध उपादेय सिद्ध होगा जहाँ अधोलिखित प्रयोगों के जरिये संगणक की उक्त समस्या का प्रशमन किया जा सकेगा।

·         समस्त परिवर्तित शब्दों का डाटाबेस निर्माण

·         विविध भाषा के पृथक डाटाबेस को अन्तर्सम्बन्धित करना

·         उक्त समस्त शब्दों को चर्चित नव बिन्दु के आधार पर डाटाबेस तैयार कर प्रोग्राम तैयार करना जो text में प्राप्त सन्दिग्ध शब्दों स्वतः हाइलाइट कर दे।

·         प्रोग्राम अगले चरण में अन्य पक्षों को प्रदर्शित करनें में सक्षम हो।

·         प्रोग्राम का अन्तिम चरण सन्दर्भानुकूल अर्थ चयन कर अनुवाद करने में सक्षम हो।

इस प्रकार यह शोध अपने पूर्ण रूप में संगणकीय अनुवाद (संस्कृत और भारतीयभाषा के पारस्परिक अनुवाद) को सहज बना सकता है।

सन्दर्भग्रन्थसूची

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·         देव, डा., १९९७, प्रामाणिक हिन्दी व्याकरण, हिन्दी प्रचारक पब्लिकेशन्स प्रा० लि०, वाराणसी

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·         Dr., २००७, मानक हिन्दी कोश: हिन्दी भाषा का अद्यतन, अर्थप्रधान और सर्वांगपूर्ण शब्दकोश, Allahabad : Hindi Sahitya Sammelan, Prayag

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·         महरोत्रा, रमेश चंद्र, २०००, मानक हिन्दी के शुद्ध प्रयोग-१, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली

·         महरोत्रा, रमेश चंद्र, २०००, मानक हिन्दी के शुद्ध प्रयोग-२, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली

·         महरोत्रा, रमेश चंद्र, २०००, मानक हिन्दी के शुद्ध प्रयोग-३, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली

·         महरोत्रा, रमेश चंद्र, २०००, मानक हिन्दी के शुद्ध प्रयोग-४, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली

·         तरुण, आचार्य डा. हरिवंश, २००४, मानक हिन्दी मुहावरा- लोकोक्ति कोश, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली

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·         http://www.sanskrit-lexicon.uni-koeln.de/scans/STCScan/web/index.php


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प्राचीनकालिकी गुप्तचरव्यावस्था

डॉ. प्रदीप कुमार झा

 

प्राचीनकाले गुप्तचर व्यवस्था समृद्धा आसीत्। राज्यस्य विकासाय अस्यां व्यवस्थायामेव सानन्दं ससौरव्यंञ्च जनाः निर्वसन्ति स्म। इयं व्यवस्था आवश्यकी विद्यते। 

वस्तुतः गुप्तचराणां नियुक्ति प्रचलनम् राज्ये अतिप्राचीनकालादेव प्रारब्धम्। प्राचीनकाले प्र्रत्येकं राजा स्वराज्यरक्षार्थं गुप्तचरान्नियोजयति स्म। राज्यस्य प्रत्येकं क्षेत्रे एतेषां गुप्तचराणामतीव महत्वपूर्णं स्थानमस्ति। गुप्तचराः वस्त्रं परिवर्त्य स्वस्यापरस्य वा राज्यस्य राजन्तत्रे अन्यस्मिन क्षेत्रे वा गतिविधीन् प्रेक्षन्ते। अतः एतेषां सर्वत्र निर्बाध विचरणं भवति। ताः सर्वाः वार्ता एते गुप्तचराः स्वस्वामिने उच्चाधिकारिणे वा सम्यगबोधयन्ति। अनेकेषु संस्कृतग्रन्थेषु गुप्तचरणामुल्लेखः प्राप्यते। 

चाणक्येन अर्थशास्त्रे निर्दिष्टं यत् राजकार्याणंा सुष्ठु संचलनाय विभिन्नवेषेषु यथा गृहपतिवणिक्तपस्विवेषेषु प्रजाजनेषु अज्ञातरूपेण प्रविश्य गुप्तवार्ताः ज्ञात्वा राज्यं प्रति प्रेषणीयाः। 

ते गुप्तचराः शत्रुप्रेषितानां दुष्टपुरुषाणां विषये राज्यं सूचयन्ति। कौटिल्यानुसारेण एते गुप्तचराः स्वामिभक्ताः भवेयुः ये स्वस्वामिनः कार्यसिद्धिमेव स्वकार्यसिद्धिमवागच्छेयुः। एते निःस्वार्थाः निरीहाः च भवेयुः। 

किरातार्जुनीयमहाकाव्यस्य प्रथमसर्गस्य चतुर्थश्लोके गुप्तचरः चारः इत्युक्तः। तेषां महत्वख्यापने च कथितमस्ति यत् ते नृपाणां नेत्राणि सन्ति। राजानः स्वयमेव सर्वत्र गत्वा सर्वं द्रष्टुमसमर्थाः सन्ति। अतः एते चाराः गुप्तचराः वा इतस्ततः गत्वा राज्ञे सूचनाः एकत्रीकुर्वन्ति तस्मै निवेदयन्ति च।

एवमेव हितोपदेशेऽपि कथितमस्ति यदन्यराज्याणां कार्यस्यावलोकनार्थं यस्य नास्ति गुप्तचरः सः राजा अन्ध एव।

यथोक्तम्

भवेत्स्वपरराष्ट्राणां कार्याकार्यावलोकने, चारचक्षुर्मही भर्तुर्यस्य नास्त्यन्ध एव सः।। (हितोपंदश 2-3)

विषयेऽस्मिन् ऋग्वेदेऽपि वर्णितोऽस्ति - 

न तिष्ठन्ति न निमिषन्त्येते देवानां स्पश इह ये चरन्ति। 

ऋग्वेद 10.10.8

अत्र वर्णितमस्ति यदस्मिन् लोके देवैः सम्बद्धाः ये गुप्तचराः अहोरात्रं विचरन्ति ते सर्वाणि शुभान्यशुभानि लक्षणानि कर्माणि च द्रष्टुं परिभ्रमन्ति। एतेगुप्तचराः क्षणमात्रमपि विचरणकार्याद्विमुखाः न तिष्ठन्ति निमेषमपि च न कुर्वन्ति। यः कोऽपि शुभमशुभं कार्यं करोति तं निरन्तरं निरीक्षयन्ते। ‘‘न तिष्ठन्ति न निमेषोन्मेषं कुर्वन्ति देवानामेते गुत्तचराः सर्वत्र एव च परिभ्रमन्ति’’। ऋग्वेद 18.1.9

वस्तुतः गुप्तचराः अप्रत्यक्षरूपेण अस्मान् रक्षन्त्येव यतः ते स्वगुप्तकार्येः सर्वं ज्ञात्वा अपराधिनं गृह्णन्ति इन्द्रोऽपि स्पशः अर्थात् गुप्तरूपेण शत्रुविषये सर्वं ज्ञात्वा शत्रुं नाशयति। अथर्ववेदे कथितमस्ति यत् यः कोऽपि शत्रुः अस्मत्समक्षं धावित्वा अन्तरिक्षमपि तरति सः शत्रुः आत्मानं राज्ञः वरुणस्य पाशेभ्यः मोचयितुमसमर्थः। 

द्युलोकादुद्भूताः अस्य चराः अस्मिन् विश्वे सम्यक् सर्वत्र च परिभ्रमन्ति। सहस्राक्षाः ते चराः भूलोकस्य सम्पूर्णं वृत्तान्तं साक्षात् पश्यन्ति।

अथर्वेवेदेऽपि कथितोऽस्ति-

उत यो द्यामतिसर्पात् परस्तान्न स मुच्यातै वरूणस्य राज्ञः। दिवः स्पशः प्रचरन्तीदमयस्य सहसाक्षा अति पश्यन्ति भूमिम्’’ 

(अथर्ववेद-4.10.4)

गुप्तचराणां विशिष्टगुणाः -

गुप्तचराः अतीव कठोराः भवन्ति। ते सर्वेभ्यः तेषां कार्यानुरूपं फलं दण्डं च ददाति। गुप्तचराः गतिशीलाः द्रोहरहिताः न्यायपूर्वककार्यकारिणो भवन्ति। ते गुप्तचराः शोभनतीव्रगतियुक्ताः भवन्ति येन क्वचिदपि प्रवेष्टुं कमपि दुष्टजनं ग्रहीतंु समर्थाः भवेयु ते गुप्तचराः सुदृष्टियुक्ताः भवन्ति येन ते अपराधिनं ज्ञातुं समर्थाः भवेयुः। द्रोहवशीभूताः भूत्वा गुप्तचरः कमपि न दण्डयति अयमेव तस्य विशिष्टमाचरणमस्ति। अनेन गुप्तचरस्य पक्षपातरहिता न्यायशीलता च परिलक्ष्यते। प्राचीनकालिकी गुप्तचरव्यवस्था एतादृशी समृद्धा आसीत्। अतीव सुदृढ़ा सुघटिता गुप्तचरव्यवस्थोपरि यस्य कस्यापि राज्यस्यशासनव्यवस्थायां गुप्तचरव्यवस्था सुदृढ़ा सुघटिता भवति तस्य राज्यस्य विकासोऽपि झटित्यैव भवती तस्मिन् राज्ये जनानां मनसि अपि भयरहितं कार्यं सम्पादनाय वातावरणं भवति। 

शासकस्य इदं कर्तव्यं यत् सः गुप्तचरविभागस्य निर्माणं कुर्यात् यतः ते गुप्तचराः शासकस्य नेत्राणि इव सन्ति। 

दूतस्य प्रखर-प्रतिभा, वाक्चातुर्यं, राजनीतिज्ञता, सहिष्णुता, कठोरता उत्कृष्टा विद्यते। एते एव गुणाः गुप्त चरस्यैव सन्ति यै एतैराचारैः शत्रुपक्षं पठित्वा कार्ययोजनां विदधाति। वैदिक लौकिके चोभयात्मके संस्कृतवाड.मये गुप्तचरव्यवस्थासम्बन्धि प्रचुरं साहित्यं धर्मशास्त्रार्थशास्त्रयोरड़्गतया इतस्ततो विकीर्णं समुपलभ्यत शत्रुराष्ट्रस्य रहस्यपरिज्ञानार्थं गुप्तचरप्रयोगस्य ज्ञानेन सावधानेन स्वयोजनापूर्वकं कार्यं कुर्वन्ति जनाः। 

महाभारते कौटिलीयेऽर्थशास्त्रे सोमदेवस्य नीतिवाक्यामृते अग्नि-पुराणे स्मृतिग्रन्थेषु च गुप्तचर व्यवस्थायां भूयसी सामग्री समुपलभ्यते। 

गुप्तचराणां सामान्यसुरक्षाप्रशिक्षणेन सह विशिष्टप्रशिक्षणस्य आवश्यकता विद्यते। परिस्थित्याः मुखाकृत्याः अंगप्रकृत्याश्च विशेषाध्ययनं तेषां कृते भवति। एतेन एते गुप्तचराः आकृतिं स्थितिं परिस्थितिं आचारं व्यवहारं च दृष्ट््वा शत्रुणां दशां ज्ञातुं सक्षमन्ते।

वर्तमान काले गुप्तचराणां स्थितिः भिन्नास्ति। प्रत्येकस्य क्षेत्रस्य कृते विशेषरुपेण गुप्तचरस्य व्यवस्था करणीया भवति। प्रतिरक्षाक्षेत्रे - वाणिज्यक्षेत्रे - शिक्षाक्षेत्रे - स्वकीयसुरक्षाक्षेत्रे च प्रत्येकस्य क्षेत्रे गुप्तचरस्य महती आवश्यकता अस्ति। गुप्तचरव्यवस्थां विना महान् कार्यस्य प्राप्तिः सम्प्रति सम्पूर्णं भवितुं नैव शक्यते। चिन्तनीयो विषयोऽयं विद्यते यत् आतंड.्कवादः राष्ट्रे-राज्ये-जनपदे च सर्वत्र एका महती समस्या वर्तते। 

अस्याः समस्यायाः समाधानाय आवश्यकं प्रयत्नं सामुहिकं भवितव्यं समूहरुपेण जनाः आतंड.्कवादिनां संरक्षणादि व्यवस्थां परित्त्यक्त्वा राष्ट्रस्य समृद्धद्यर्थं यदि प्रयत्नं करिष्यन्ति तर्हि अवश्यमेव अस्माकं राष्ट्रं विषमुक्तं भवितुं शक्यते। विषमुक्तं भूत्वा विकसितराष्ट्रे गन्तुं शक्यते नास्ति लेशमात्रोऽपि सन्देहः।

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पूर्वत्रासिद्धम्’ विमर्शः

                                                

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रामसेवक झा

LBS, New Delhi

 

येन धौता गिरः पुंसां विमलैः ब्दवारिभिः।

तमश्चज्ञानजं भिन्नं तस्मै  पाणिनये नमः।।

            अनादिनिधनं ब्रह्म ब्दतत्त्वं यदक्षरमिति ब्दसाधुत्वबोधनाय भगवान पाणिनिः अष्टाध्यायीं प्रणिनायेति विदितमेव सर्वैः। तत्राष्टमाध्यायस्य द्वितीयपादे प्रथमसूत्रत्वेन पठ्यते ‘पूर्वत्रासिद्धम्’ इति। अत्र पूर्वत्रेतिपदेन सपादसप्ताध्यायी गृह्यते। पूर्वत्रेत्युक्त्यां परं (त्रिपादी) इत्यर्थाल्लभ्यते। एवं च सपादसप्ताध्यायी त्रिपादीति चाष्टाध्यायी द्वेधा व्यभज्यत। कुतोऽयं विभाग इति मनसि जिज्ञासायां लक्ष्यसिद्धिरेव परमप्रयोजनत्वेन गृह्यते। अर्थात् एवं वक्तुं क्यते यत् प्रयुक्तानामिदमन्वाख्यानमिति कारणात् लोके यावन्तः ब्दाः प्रयुक्ताः सन्ति तावतां सर्वेषां सिद्धिमालक्ष्य व्यवस्थेयमकारि। पूर्वत्र विये परमसिद्धं स्यादित्यर्थः। इदं च सूत्रं सूत्रान्तराणामेव असिद्धत्वं प्रतिपादयति न त्वात्मनः। बोधकस्य बोधत्वाभावात्। एतस्यैवासिद्धत्वे सर्वेषामपि सिद्धत्वेन सूत्रारम्भस्यैवानर्थक्यापत्तिः। यथा लोके ‘सर्वं मिथ्या ब्रवीति’ इति वाक्यं वाक्यान्तराणामेव मिथ्यात्व प्रतिपादयति न तु स्वस्यैव। एतस्यापि मिथ्यात्वो वाक्यान्तराणां मिथ्यात्वं न स्यादित्यर्थकमेतद्वाक्यं स्यात्।

पूर्वत्रासिद्धम् (8.2.9) इत्यस्याधिकारत्वनिरूपणम्

            पूर्वत्रासिद्धमित्यधिकारः[43]  अधिक्रियते उत्तरोत्तरं सम्बध्यत इत्यधिकारः। स्वदेषे लक्ष्योपयोगिवाक्यार्थबोधजनकत्व शून्यत्वे सति विधिशास्त्रैकवाक्यतया लक्ष्योपयोगिवाक्यार्थबोधजनकत्वमधिकारसूत्रत्वम्। अर्थात् इदं सूत्रमुत्तरोत्तरेण सम्बध्य बाह्यैकवाक्यतया असिद्धत्वमारोपयति। अन्यथाऽस्य स्वतन्त्रविधित्वे त्रिपाद्यां पूर्वं प्रति परमसिद्धं स्यादित्यर्थे नैव लभ्यते। ततश्च गो धुङ्मान् इत्यादिषु दोप्रसज्यते। तथाहि गोदहोऽस्य सन्ति इति विग्रहे गोदुह् इत्येतत्प्रातिपदिकप्रकृतिकप्रथमाविभक्त्यान्तात् ‘तस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप्[44]  इति सूत्रे मतुप् प्रत्यये, दादेर्धातोर्धः[45]  इति सूत्रेण हस्य असिद्धत्वात् ‘एकाचो बशो षस्त[46] स्ध्वोः’  इति सूत्रेण भष्भावे सति ‘झलां जषोऽन्ते[47]  इति जष्त्वं भवति। ततष्च घत्वे गोदघ् इति जाते जष्त्वं प्राप्नोति। तस्य यरोऽनुनासिकेऽनुनासिके वा[48]  इति विकल्पेन अनुनासिकत्वे प्राप्ते ‘प्रत्यये भाषायां नित्यम् (वा) इति अधिकारत्वाभावे यथाक्रमं घत्वानन्तरं जष्त्वं प्राप्नोति कृते च तस्मिन् झन्तत्वाभावात् भष्भावस्यैवानापत्तिः। अधिकारत्वे तु त्रिपाद्य्आमपि पूर्वं प्रति परं शास्त्रमसिद्धं स्यादित्यर्थलाभेन न पूर्वोक्तदोस्यावकाशः

            पूर्वत्रासिद्धम् (8.2.1) इत्येतत् उत्तरोत्तरं सम्बध्य वाक्यैकवाक्यतया असिद्धत्वमारोपयति। तथा हि-‘संयोगान्तस्य लोपः[49]  इति किंचित् सूत्रं पूर्वत्रासिद्धम् इत्यधिक्रियते। एकवाक्यता चेत्थम्, संयोगान्तं यत्पदं तदन्तस्य लोपो भवति, इदं च शास्त्रं पूर्वत्र कर्तव्ये असिद्धं भवति इति। यथा-‘अनड्वान्’ इत्यत्र ‘नलोप प्रातिपदिकान्तस्य’  इति सूत्रस्य दृष्ट्या संयोगान्तस्य लोपः[50]  इति हलोपस्य असिद्धत्वेन नकारय पदान्त्वाभावात् नलोपो न भवति। एवं च नेदं परिभाषासूत्रं किन्त्वधिकारसूत्रमेव। अत एव पूर्वत्रासिद्धमित्यधिकारः इति वार्तिकम्, गेाधुङ्मान् गुडलिण्मान् इति धत्वढत्वयोः कृतयोः झयः इति वत्वं प्रसज्येत। तस्मादधिकारः इति प्रकृतसूत्रस्थं भाष्यं च संगच्छते।

            कार्यासिद्धत्वं प्रदूष्य शास्त्रासिद्धत्वोपपादनम् अनेन सूत्रेण शास्त्रस्यैवासिद्धत्वं बोध्यते न तु कार्यस्य ‘प्रक्षालनादि पंकस्य दूरादस्पर्नं वरमिति[51]  ‘न्यायात्, परः परो योगः पूर्वं पूर्वं योगं प्रत्यसिद्धो यथा स्यादिति प्रकृतसूत्रभाष्यं च।

            किं च कार्यासिद्धत्वे अमू अमी इत्यादीनि शब्दरूपाणि न सिध्यन्ति। तथा हि ‘अदस्’ शब्दात्पुल्लिंगे प्रथमाविभक्तौ द्विवचने विवक्षिते ‘औ’ प्रत्ययो भवति। ततश्च त्यदादीनामः[52]  इति सूत्रेण अदस् शब्दस्यान्त्यस्य अकारादेषे अद अ औ इति स्थिते ‘अतो गुणे’[53]  इति पररूपे वृद्धौ च सत्यां अदौ इति भवति। ततष्च अदसोऽसेर्दादुदो मः[54]