संस्कृत विद्युतपत्रिका
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सुन्दरकाण्ड में वर्णित रस निरूपण डॉ.
श’िाकान्त द्विवेदी असिस्टेन्ट
प्रोफेसर,, वैदिक-दर्’ान विभाग, संस्कृतविद्या-धर्मविज्ञान-संकाय, का’ाीहिन्दूवि’वविद्यालय, वाराणसी - 221005 सभी लोग जानते है कि
काव्य का अनितरसाधारण तत्व रस है। रस के कारण ही काव्य को अन्य वाङ्मय से अलग समझा
जाता है। इस रस के निबन्ध में वहीं कवि सफल होता है जिन्होंने परिपक्व प्रतिभा
तथा वि’ोषरूप में अनेक
वाड्.मय का अध्ययन कर निपुणता अर्जित कर ली है। साथ ही साथ महाकवियों के सानिध्य
में काव्यनिबन्धन की कला का पूर्णतया अभ्यास कर लिया है। अपरिपक्वमति वाला कवि
यदि रसनिबन्धन के समय अपने काव्य में विभावादि परिपोष में ’िाथिल, या
प्रकृत विभावादि के परिपोष में अनुपयुक्त एक भी पद का सन्निवे’ा कर देता है तो सम्पूर्ण रसबन्धकाव्य का काव्यत्व
समाप्त सा होता हुआ प्रतीत होता है अतः रसकवि को उपर्युक्त प्रतिभा, अध्ययन से उत्पन्न निपुणता तथा अभ्यास तीनो परमाव’यक है। अस्तु प्रकृत में रस के उदाहरणों के द्वारा
रस का निरूपण करना है अतः रामायण से यथासम्भव रस के उदाहरण यहॉ दर्’ााये जा रहे हैं। यद्यपि यह प्रसिद्ध है कि रामायण
एक महाकाव्य है जिसका आचार्यो ने भूरिभूरि प्रं’ासा की है। भरतमुनि को प्रमाण मानकर श्रृंगार हास्य, करूण, रौद्र
वीर भयानक वीभत्स अद्भुत तथा शान्त भी ए नव रस माने गये है। यद्यपि परवर्ती कुछ
आचार्य जैसे मधुसूदन सरस्वती तथा धर्मसम्राट् हरिहरानन्द सरस्वती स्वामी
करपात्री जी महाराज भक्तिरस को भी रस ही मानते है तथा अपनी पुष्ट युक्तियों से
भक्ति को लोकोत्तर रस के रूप में पुष्ट करते है किन्तु मुनि (भरत) के वचन
प्रामाण्य से पण्डितराजादि भक्ति को भाव ही मानते है। इनका तर्क है कि यदि भक्ति
को रस माना जायेगा तो वात्सल्य आदि भी रस होने लगेगें इस प्रकार नव रस की संख्या
का व्याघात होने लगेगा अतः नव रस उपर्युक्त श्रृगारादि शान्तपर्यन्त ही माने
जायेगे। चूॅकि यहॉ नव रसों के विषय में विचार करने का प्रस्ताव है। अतः भक्ति
आदि का स्वयं निवारण हो जाता है। किन्तु भाव के रूप में उसका विवेक किया जायेगा।
श्ांृगार रस आचार्यों ने रसों में
सर्वप्रथम श्रृगार रस को ही लिया है। प्राणिमात्र में जन्म ग्रहण से ही वासना
रूप में रति, क्रोध, उत्साह तथा भय विद्यमान होते है। तथा उनमें भी रति
आपामर प्रसिद्ध है अतः लौकिक रति से अभिज्ञ लोग लोकोत्तर रति तक बड़े ही सरल
मार्ग से पहुॅच सकते है इसलिए श्ांृगार को सर्वप्रथम रसरूप में वर्णित किया गया।
युवक तथा युवती जो
परस्पर एक दूसरे में अनुरक्त हों, उनकें
हाव भाव कटाक्षादि कार्य तथा औत्सुभ्य उन्मादादि सहकरिभाव लोक में देखे जाते है
वसन्त नि’ाा वर्षा आदि उद्दीपन
कारण भी प्रतीत होते है। यही जब कवि के द्वारा काव्य या नाट्य में निवन्धित किये जाते है, तब इनकी संज्ञा विभाव, अनुभाव, तथा
संचारी भाव की हो जाती है। इन्ही विभावादि में विभावनादि नाम के व्यापार होते है
जिससे ए साधारणतया सम्बन्ध वि’ोष
से रहित (’ाून्य) होकर सहृदय के
हृदय में एक व्य॰जना नाम के व्यापार का प्रादुर्भाव करते है। इस व्य॰जना से
सहृदय के हृदय का अज्ञानान्धकार दूर हो जाता है तथा पहले से वासना के रूप में
स्थित रत्यादि स्थायी भाव प्रका’िात
होने लगते प्रका’िात होते हुए भी, ये स्थायीभव प्राग्वासना के रूप में होने से ये भी
ज्ञान स्वरूप ही होते है अतः इन्हे भी प्रका’ा रूप ही मान लिया जाता है क्यों कि इन्द्रियों का
सन्निकर्ष न होने से इनकी विषयता नहीं बन पाती अतः साक्षिभास्यता मानकर इन्हंे
भी ज्ञानरूप ही मान लिया जाता है। इस प्रकार ज्ञानरूप (चिद्रूप) में स्थित ये
विभाव अनुभाव संचारी रत्यादि तथा व्य॰जना सभी प्रपाणकरस के समान रसरूप में परिणत
हो जाते है अतः भरतमुनि ने कहा है कि - विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः। यद्यपि इस सूत्र की
व्याख्या बहुत से आचार्य अपनी-अपनी दृष्टि से अनेक प्रकार से किए है किन्तु
उपर्युक्त मत अभिनव गुप्त सम्मत है अतः इसी को अधिक लोग स्वीकार करते है। यद्यपि
यहॉ रसनिष्पति का विचार अप्रासंगिक होगा अतः केवल जितना रसानुभूति के लिए आव’यक है उतना ही यहॉ दिखा दिया गया। विस्तार के लिए
आचार्यो के ग्रन्थों को देखा जा सकता है। इसी प्रकार सभी रसों
के स्थायी, विभाव, अनुभाव तथा संचारी भिन्न-भिन्न होते है। तथा सहृदय
को लोकोत्तर रस तक ले जाते है। श्रृंगार रस में रति
स्थायीभाव, प्रेमी तथा प्रेमिका, आलम्बनविभाव, वसन्त
वर्षा आदि उद्दीपन विभाव, परस्परावलोकन
रोम॰चादि कटाक्षादि अनुभाव, स्वेदादि
सात्विकभाव, तथा औत्सुक्य
उन्मादादि व्यभिचारिभाव, होते
है। यह दो प्रकार का होता है संयोगश्ाृंगार तथा वियोगश्ाृंगार। दोनों में रति की
प्रधानता होती है। दोनों विभाव भी एक ही होते है । अनुभाव भी प्रायः एक ही होते
है जो वाहर से प्रतीत होते है किन्तु इनका कारण जो रति है वह ‘‘मै वियुक्त हॅू’’ मै संयुक्त हॅू इस प्रकार की वियोगकालावच्छिन्न तथा
संयोगाकालावच्छिन्न अन्तःकरणचित्तवृत्ति वाली होती है इसलिए अपने-अपने कारण
के अधीन इन में भेद हो जाते है।
व्यभिचारिभाव ऐसे ही वि’िाष्टरति
के कारण भिन्न-भिन्न होते है। इनमें संयोग श्रंृगार
परस्पर अवलोकन, आलिंगन, अधरपान परिचुम्बन आदि के अनन्तभेद होने से अनन्तभेद
होता हुआ भी गणनातीत होने के कारण एक ही प्रकार का माना जाता है। वियोगश्ाृंगार किसी
आचार्य के मत में, अभिलाष विरह ईष्र्या
प्रवास तथा शापहेतुक पॉच प्रकार का होता है किन्तु कुछ आचार्य इन भेदों में
वैशिष्ट्य न देखकर इसे एक ही प्रकार का मानते है। विप्रलम्भ श्ाृंगार तं पद्यदलपत्राक्षं
सिंहविक्रान्तगामिनम्। धन्याः प’यन्ति मे नाथं कृतज्ञं प्रियवादिनम् ।। सर्वथा तेन हीनाया
रामेण विदितात्मना । तीक्ष्णं
विषमिवासाद्य दुर्लभं मम जीवनम् ।। श्ाृंगार का स्थायी रति
है परस्पर नायक नायिका इसमें आलम्बन विभाव, परस्पर
कटाक्षादिविक्षेपादि अनुभाव तथा दैन्यव्रीडादि व्यभिचारीभाव होते है। यह सम्भोग
श्ाृंगार तथा विप्रलम्भ श्ाृंगार दो प्रकार का होता है जब नायक नायिका परस्पर
वियुक्त होते है तो विप्रलम्भ श्रृंगार होता है। यहॉ सीता राम के वियोग में
संतप्त है तथा उनकी चिन्ता करती हुई कह रही है कि वे धन्य है जो कमलपत्र के समान
दीर्घ वि’ााल नेत्रों वाले, सिंह के समान पराक्रमी, मेरे प्रियतम राम का दर्’ान करते होगे। मैं उनसे वियुक्त हॅू जो वियोग
तीक्ष्ण विष की तरह मेरे शरीर में फैला रहा है मेरा जीवन दुर्लभ ही है। यहॉ राम आलम्बन विभाव, सीता की उक्ति जैसा कि ‘‘मेरे प्रियतम को जो देखते होगे वे धन्य है’’ इससे औत्सुक्य तथा विष के समान विरह से जीवन की
दुर्लभता से दैन्य आदि व्यभिचारी भाव, सीता
का सानुराग राम के प्रति इस प्रकार का कथन, अनुभाव
तथा रति स्थायी भाव है। अतः यहॉ विप्रलम्भ श्रृंगार है। करूण रस हा राम हा लक्ष्मण !
हा सुमित्रे हा राममातः सह मे जनन्यः। एष विपद्याम्यहमल्पभागा महार्णवे
नौरिव गूढतापा।। तरस्विनौ धारयता
मृगस्य सत्वेन रूपं मनुजेन्द्रपुत्रौ। नूनं वि’ास्तौ मम कारणातौ सिंहर्षभौ द्वाविव वैद्युतेन।। यहॉ राम लक्ष्मण को
मृत (वि’ास्त) समझकर सीता
विलाप कर रही है। यद्यपि राम लक्ष्मण मृत नहीं है फिर भी चित्तवृत्ति, सम्भावनात्मक मृत्यु की शंका करके भी शोक उत्पन्न
करती ही है। विप्रलम्भ में, चित्तवृत्ति
मृत्यु की सम्भावना नहीं करतीं। कहीं
कादम्बरी आदि में यदि मृत तथा पुनर्जीवित की सम्भावना से जो शोक होता है वह केवल
मृत की सम्भावना से नहीं होता है अतः करूणविप्रलम्भ से अतिरिक्त ही यह करूण रस
माना जा सकता है। यहॉ विद्युत्तेजः के
प्रहार से दोनो वीर राम तथा लक्ष्मण को सीता वि’ास्त (मृत) समझकर रूदन कर रही है। हा राम हा लक्ष्मण हा
सुमित्रे ! आदि शोक को ही व्यक्त कर रहे है। महार्णव में पड़ी नौका की उपमा से
स्वयं भी प्राण त्याग करने के लिए उद्यत सी प्रतीत हो रही हैं। अतः - सम्भावितमृत राम एवं
लक्ष्मण आलम्बन, हा राम आदि उक्ति से
गम्य शोक रोदनादि अनुभाव वैद्युतकृतवि’ास्तता
उद्ीपनम्, दैन्य, ग्लानि, मूच्र्छा, आदि व्यभिचारी भाव तथा शोक स्थायीभाव है अतः करूण
रस माना जा सकता है। रौद्ररस तस्य तद्वचनं
श्रुत्वा लंका सा कामरूपिणी। भूय एव पुनर्वाक्यं
बभाषे परूषाक्षरम्।। मामनिर्जित्य
दुर्बुद्वे ! राक्षसे’वरपालिताम्। न ’ाक्यं ह्यद्य ते द्रष्टुं पुरीयं वानराधम।। ततः कृत्वा महानादं
सा वैलंका भयंकरम्। तलेन वानरश्रेष्ठं
ताडयामास वेगिता।। लंका प्रवे’ा के समय हनुमान््् जब लंका से रोके जाते है तथा
आने का कारण बतलाने के लिए कहे जाते है तब हनुमान्््् कहते है कि यहॉ के वन उपवन
कानन तथा मुख्य-मुख्य भवनो को देखने के लिए मेरा यहॉ आगमन हुआ है। इसे सुनकर
लंकिनी क्रोधमूर्धित होकर कहती है कि अये दुर्बुद्धे ! वानराधम ! राक्षसे’वर रावण से पालित मुझे बिना पराजित किए इस पुरी को
नही देख सकते हो। ऐसा कहती हुई लंका, भयंकर
महानाद कर थपेड़े से हनुमान्् जी पर प्रहार कर देती है। यहॉ बिना आदे’ा के छिपकर प्रवे’ा करते हुए हनुमान् आलम्बन है तथा सभी स्थानों की
निरीक्षणोक्ति उद्ीपन है, मामर्निर्जित्य
दुर्बुद्धे ! वानराधम ! आदि उक्तियॉ अनुभाव है, तथा इससे व्यक्त गर्वादि व्यभिचारीभाव है, अविचारित तत्काल तलप्रहारादि से क्रोध अभिव्यक्त है
तथा यही क्रोध स्थायी है इससे यहॉ रौद्ररस, अभिज्ञ
सामाजिक में प्रतीत हो रहा है। ब्रह्मा स्वयंभू’चतुराननो वा रूद्रस्त्रिनेत्रस्त्रिपुरान्तको वा। इन्द्रो महेन्द्रः
सुरनायको वा स्थातुं न शक्ता युधि राघवस्य।। स
सौष्ठवोपेतमदीनवादिनः कपेर्नि’ाम्याप्रतिमोऽप्रियं
वचः। द’ााननः कोपविवृत्तलोचनः समादि’ात्तस्य वधं महाकपेः।। रावण के राजदरवार में
निर्भीक बोलते हुए हनुमान््् जी कहते है कि रावण ! तुम राम को नहीं जानते हो, देखो संग्राम में राम के सामने युद्ध करने में चतुरानन
स्वयम् ब्रह्मा या त्रिनेत्र त्रिपुरान्तक रूद्र, या महेन्द्र सुरनायक इन्द्र, कोई भी समर्थ नहीं है। इस अतुल अप्रिय वचन को सुनते
ही रावण - कोपाकुल होकर नेत्रो को फाड़ फाड़कर महाकपि के वध के लिए आदे’ा दे देता है। यहॉ निर्भीक होकर
शत्रु राम का प्र’ांसक हनुमान्््
आलम्बन है इस प्रकार राम की प्र’ांसा
करना उद्दीपन है रावण के द्वारा हनुमान्् वधादि का आदे’ा अनुभाव है, उसका
आवेग गर्वादि व्यभिचारी भाव है तथा क्रोध स्थायी भाव है अतः यहॉ भी रौद्ररस है ।
भयानकरस स तं प्रदीप्तं
चिक्षेप दर्भं तं वायसं प्रति। ततस्तु वायसं दर्भंः
सोऽम्बरेऽनुजगाम ह।। अनुसृष्टस्तदा काको
जगाम विविधां गतिम्। त्राणकाम इमं लोकं
सर्वं वै विचचार ह।। सीता हनुमान््् से
काक के उस स्थिति का वर्णन कर रही है जब वह राम के दर्भ वाण से भयभीत होकर
नानाचेष्टाएॅ किया था। उस अपराधी वायस पर राम ने प्रदीप्त दर्भ (’ार) छोड़ा जिससे वह वायस आका’ा में उड़कर भागा किन्तु दर्भ’ार भी उसके पीछे-पीछे लगा रहा। अनेक प्रकार की
गतियों का आलम्बन कर वह अपनी रक्षा के लिए भागता रहा। यहॉ राम’ार या राम, आलम्बन
विभाव है प्रदीप्त दर्भ का पीछे लगना, उद्दीपन
विभाव है तथा नाना गतियों से काक का भागना अनुभाव है, शंका त्रास श्रम आदि व्यभिचारीभाव है भय स्थायीभाव
है। इस प्रकार सामाजिक भयप्रकृतिक भयानक रस का अनुभव करता है। वीररस स जातमन्युः
प्रसमीक्ष्य विक्रमं स्थितः स्थिरः संयति
दुर्निवारणम्। समाहितात्मा
हनुमन्तमाहवे प्रचोदयामास ’िातैः शरैस्त्रिभिः।। अक्ष कुमार हनुमान््
से युद्ध करने के लिए संग्रामभूमि में उपस्थित है। परम वीर हनुमान्््् को देखकर
उसे युद्ध करने का उत्साह मन में प्रवृद्ध हो रहा है। हनुमान््् के दुर्निवार्य
पराक्रम को देखते ही सग्रामस्थल में दृढ़ होकर स्थित हो जाता है तथा सरोष समाहित चित्त से हनुमान्् को युद्ध करने
के लिए तीन चोखे-चोखे बाणों से प्रेरित करने लगता है। यहॉ परमपराक्रमी
हनुमान््् आलम्बन विभाव, प्रतिपक्षी
हनुमान््् का विक्रम दर्’ान
उद्दीपनविभाव, युद्ध में स्थिरता
तथा सरोषता से गम्य गर्वादि व्यभिचारीभाव समाहितत्व संयतिस्थिरत्व तथा तीक्ष्ण
तीन शरो से युद्ध के लिए प्रेरणा, से
गम्य उत्साह स्थायी भाव, तथा
प्रेरण क्रिया अनुभाव है अतः सहृदयों में कुमारविषयक उत्साह स्थायीभाव वाला
वीररस प्रतीत हो रहा है। अद्भुतरस सा ददर्’ा कपिं तत्र प्रश्रितं प्रियवादिनम्। फुल्ला’ाोकोत्कराभासं तप्तचामीकरेक्षणम्। मैथिली चिन्तयामास
विस्मयं परमं गता। अहो भीममिदं सत्वं
वानरस्य दुरासदम्। दुर्निरीक्ष्यमिदं
मत्वा पुनरेव मुमोह सा ।। फुल्ल अ’ाोक के गुच्छे के सदृ’ा रक्ताभास तथा तपाये हुए स्वर्ण के समान रक्तनेत्र
हनुमान््् के अपूर्व सत्व को देखकर सीता को अन्यन्त विस्मय हुआ। तथा सोचने
लगी। अहो आ’चर्य है कि वानर का ऐसा भीमरूप अहो इस प्रकार
त्रिलोकी में किसी को भी न उपलब्ध होने वाला सत्व। इस रूप एवं सत्व से तो इसे
देखना भी कठिन हो रहा है इसका रूप दुर्निरीक्ष्य है ऐसा मान कर पुनः मुग्ध हो
गयी। यहॉ सं’ायित वानररूप आलम्बन है, भीमरूप तथा दुरासद सत्वादि उद्दीपन है
लोकोत्तरत्ववोधादि के लिए उच्चरित ‘अहो
दुर्निरीक्ष्यादि रूप कथन अनुभाव है मोहादि व्यभिचारीभाव है तथा विस्मय स्थायी
भाव है इस प्रकार विस्मय स्थायीभाव वाला अद्भुत
रस सामाजिकों में व्यक्त होता है। यहॉ विस्मयंगता से स्व’ाब्दवाच्यत्व दोष नही मानना चाहिए जहॉ अन्यपदो से
विस्मयादि व्यक्त न हो पाते हो तथा केवल शब्दतः विस्मय पद से विस्मयार्थ लिया
जाता हो वह दोष होता है। यहॉ अहो, आदि शब्दों से विस्मय व्यक्त हो रहा है अभिहित
विस्मय केवल अनुवादमात्र है अतः रसाभिव्यक्ति में कोई दोष नहीं है। ------------------------------------------------------------------------------------------------ |
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